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जानें कौन थे बाबा बख्शू शाह, पढ़िए 17वीं शताब्दी के लोहारी राघो के सूफी फकीर की रुहानी दास्तान

  • 300 साल पहले पीर बाबा बख्शू शाह की तपस्थली रहा है लोहारी 





लोहारी राघो.com
संदीप कम्बोज। प्रवीन खटक 
लोहारी राघो। जीवों के कल्याण के लिए हर युग में संत-पीर-फकीर धरती पर अवतार लेते आए हैं। धरा पर मानवीय गुणों को बनाए रखने के लिए सभी पीर-फकीर-महापुरूषों ने समयानुसार अलग-अलग माध्यम से समाज को नई दिशा दी। ( Know-who-was-Baba-Bakshu-Shah-read-the-story-of-the-Sufi-fakir-of-Lohari-Ragho-in-the-17th-century ) किसी पीर-फकीर ने सत्संग तो किसी ने समय-समय पर दुनियाभर में पैदल यात्रा व अपने तपोबल से लोगों को जागरूक किया। हर पीर-फकीर ने समयानुसार अपने-अपने तरीके से धर्म, अध्यात्म, मानवता भलाई व रूहानियत का डंका बजाया। इन पीर-फकीरों ने धर्म, जात, मजहब से परे हट समूची मानव जाति को इंसानियत व रूहानियत की शिक्षा दी। इन पीर-फकीरों की दया-मेहर रहमत से जीवन की अनेक मुश्किलें आसान हो जाती हैं। इनके रूहानी व सामाजिक मार्गदर्शन को देखकर हर कोई नतमस्तक हो जाता है। ऐसे ही महान पीर-फकीर थे बाबा बख्शू शाह जी। फकीर बख्शू शाह जी ने आज से करीब 300 साल पहले 17वीं शताब्दी में लोहारी राघो व आसपास के ग्रामीण इलाकों में अल्लाह, राम के नाम का डंका बजाया और लोगों में प्रेम, प्यार व भाईचारे की भावना पैदा की। मजहब से खुद मुस्लिम होते हुए भी उन्होंने सभी धर्मों को बराबर का सम्मान दिया और हिंदू धर्म से प्रभावित होकर 17 साल तक हिंदू साधुओं संग तपस्या की। तपस्या से लौटने के उपरांत बाबा बख्शू शाह जी ने धर्म, जात, मजहब के फेर में उलझे मानव समाज को रूहानियत, सूफियत से वास्तविकता का परिचय कराकर इंसानियत का पाठ पढ़ाया। गाँव लोहारी राघो के उत्तर पूर्व में स्थित बडे-बड़े मिट्टी के टीलों व घने बीहड़(भयानक जंगल)के बीच(जहाँ आज बाबा बख्शू शाह का समाधी स्थल बना है)डेरा डाला व लोगों को सच की राह पर चलना सिखाते हुए इंसानियत का रास्ता दिखलाया। लोहारी राघो.कॉम टीम आज आपको 17वीं शताब्दी में गाँव में परमपिता परमात्मा के नाम का डंका बजाने वाले इस महान पीर-फकीर बाबा बख्शू शाह के जीवन के बारे में अवगत करवाने जा रही है। बाबा बख्शू शाह के नाम का डंका भारत के अलावा आज पाकिस्तान में भी बज रहा है। पाकिस्तान में मौजूद बाबा बख्शू शाह जी के परिजनों से मिली जानकारी के आधार पर ही हमने बाबा बख्शू शाह के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालने का तुच्छ प्रयास किया है।

जुल्फकार खान के घर लिया अवतार 
सूफी पीर-फकीर बाबा बख्शू शाह जी ने 17वीं शताब्दी(लगभग 1735-40) में भारत के पंजाब(वर्तमान में हरियाणा) प्रांत के जिला हिसार की तहसील हांसी (वर्तमान में नारनौंद) के गाँव लोहारी राघो के जाने-माने जमींदार जुल्फकार खान के घर अवतार लिया। जन्म के समय से ही बाबा बख्शू शाह के चेहरे पर आलौकिक तेज था। हर कोई इन्हें बेअथाह प्यार व सत्कार से नवाजता। बाबा बख्शू शाह जी के माता-पिता भी धार्मिक विचारों के स्वामी होने के साथ-साथ सहृदय, मिलनसार व मानवीय गुणों से ओत-प्रोत थे। उनकी मधुर वाणी व मधुर स्वभाव भी हर किसी को लुभाने वाला था। माता-पिता की नेक सोहबत का ही असर था कि बाबा बख्शू शाह जी का ध्यान बचपन से ही दुनियादारी की बजाय परमार्थ व धमार्थ की ओर ज्यादा था। गाँव में 4 मुरब्बे से भी अधिक जमीन हाने के कारण घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। इसलिए बख्शू शाह जी बचपन से ही गरीब असहायों के प्रति अति शुभचिंतक थे। बख्शू शाह जी का बचपन, मधुरता से लबरेज था। मीठी-मीठी बातें दिलकशी का नजारा बन जाती। माता-पिता की उच्च धार्मिक शिक्षाओं की बदौलत ही बख्शू शाह जी बचपन से ही धर्म-कर्म की ओर प्रवृत रहने लगे। बख्शू शाह जी बचपन से ही विनम्र, दयालु, सहनशील और मिलनसार थे। हर किसी से प्रेम-प्यार, मीठा बोल-चाल, आदर सत्कार व शिष्टाचार के गुण बख्शू शाह जी के आदर्श जीवन की महान संस्कारशाला थे।

जब भूखे साधुओं ने पिता से माँग लिया बालक बख्शू 
माता-पिता से मिली परोपकार की शिक्षाओं की बदौललत बाबा बख्शू शाह हर किसी का पूरा ख्याल रखते और जरूरत पड़ने पर हर किसी की मदद किया करते। इस परोपकारी भावना से हर कोई बख्शू शाह से प्रभावित था। बाबा बख्शू शाह जी का बचपन से ही धर्म-कर्म के कामों में रूझान था इसलिए वे पीर-फकीरों-संत-महापुरुषों की वाणी पढ़ने-सुनने में अत्यंत रूचि लेते थे। जब वे करीब 5-6 वर्ष के थे तो गाँव में दो साधु आए। उन्हें बहुत भूख-प्यास लगी थी। बाबा बख्शू शाह के पिता जुल्फकार खान ने उन साधुओं की बहुत सेवा की। उन्हें भोजन करवाया व बहुत आदर-सत्कार किया। उस समय बाबा बख्शू शाह भी वहीं पास में ही थे। वे साधु जुल्फकार की सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुए व बालक बख्शू शाह की ओर ईशारा करते हुए पूछा की,‘‘ये आपका बेटा है?’’ इस पर  जुल्फकार खान ने बताया कि, ‘‘हाँ ये मेरा ही बेटा है।’’ साधु बोले कि ये बच्चा हमें दे दो। इस पर जुल्फकार खान ने कहा कि, ‘‘महात्मा जी ! आपने भोजन कर लिया है, अब आप जाईए, कोई और सेवा हो तो बताईए, मेरे पास सिर्फ एक ही बेटा है।’’ ‘‘ये बालक यदि हमारे भाग्य में लिखा होगा तो हमें स्वंय ही मिल जाएगा’’, इतना कहकर वे साधु वहाँ से चल दिए। माता-पिता बिल्कुल नहीं चाहते थे कि बालक बख्शू फकीरों के डेरे पर जाए और फकीर बनें। जुल्फकार खान ने बालक बख्शू को देहली यानि घर के दरवाजे के पास खेलने के लिए छोड़ दिया और स्वंय घर के काम-काज में व्यस्त हो गए। जब कुछ देर बाद बालक बख्शू को ढूंढ़ने लगे तो कोई अता-पता नहीं चला। घर के आस-पास स्थित घने बीहड़ में भी तलाश की गई लेकिन सब व्यर्थ। बालक बख्शू की कोई खबर नहीं मिली।

17 साल तक बधावड़ के डेरे में की घोर तपस्या 
बालक बख्शू के बगैर माता-पिता चिंतित तो थे लेकिन इसे परमपिता परमात्मा की इच्छा मान रहे थे कि अगर अल्लाह चाहते होंगे तो कभी न कभी बालक बख्शू स्वंय लौट आएगा। दिन बीते, महीने और फिर साल भी लेकिन बालक बख्शू कहाँ है, कोई सुराग नहीं मिला। बालक बख्शू शाह तो गाँव बधावड़ स्थित उन्हीं साधुओं के डेरे पर पहुंच चुके थे जिन्हें उनके पिता जुल्फकार खान ने भोजन करवाया था। गाँव के बड़े जमींदार होने के कारण घर में हर तरह के ठाठ-बाट होते हुए भी बालक बख्शू ने सब कुछ त्याग फकीरी का रास्ता चुन लिया। अब बालक बख्शू धर्म-कर्म में ध्यान देने लगे। इसके लिए साधु-महात्माओं से अक्सर चर्चा भी किया करते। इसी तरह परमात्मा के नाम की चर्चा करते-करते 17 साल बीत गए। और अब बालक बख्शू के इम्तिहान की घड़ी थी। साधु-महात्माओं ने बाबा बख्शू शाह की कई प्रकार से कठिन परीक्षा भी ली। जब बख्शू शाह सभी कसौटियों पर खरा उतरे तो साधुओं ने पीर बख्शू शाह की उपाधी देकर अल्लाह, राम के नाम का डंका बजाने के लिए भेज दिया।

जब बालक बख्शू से फकीर बख्शू शाह बन लौटे लोहारी  
ठीक 17 साल बाद यानि 22 की उम्र में जब बालक बख्शू पीर बख्शू शाह बनकर लोहारी राघो अपने घर पहुंचे तो परिजनों ने पहचानने से इंकार कर दिया। बख्शू शाह को पीर-फकीर की वेशभूषा में देखकर माता-पिता को तो जैसे यकिन ही नहीं आ रहा था कि यह अपना बख्शू ही है। इस दौरान बाबा बख्शू शाह की मौसी ने उन्हें पहचाना तब जाकर माता-पिता को विश्वास हुआ कि वाकई में ये अपना बख्शू ही है। चहुंओर खुशियां छा गई। मिठाई्रयां बांटी गई, मंगलगान गाए गए। पीर बख्शू शाह जी ने अपने घर में रहने से इंकार कर दिया व गाँव के बाहर बड़े-बड़े बालू के टिब्बों के साथ सटे घने बीहड़(जंगल)में डेरा(ठीक इसी जगह पर आज बाबा बख्शू का समाधी स्थल है)डाला व अल्लाह, राम, परमपिता परमात्मा के नाम की चर्चा करने लगे। लोहारी राघो व आस-पास के गाँवों के अलावा दूर-दराज से सभी धर्मों के लोग बाबा बख्शू शाह के पास आने लगे व इनका शिष्यत्व स्वीकार किया।

मंगाली में हुआ था बाबा बख्शू शाह का विवाह, पढें अनसुनी रोचक कहानी   
गाँव में डेरा जमाए बाबा बख्शू को अब 2-3 साल बीत चले थे। अब परिजनों को बाबा बख्शू के विवाह की चिंता सताने लगी। लेकिन बाबा बख्शू विवाह के लिए बिल्कुल भी तैयार न थे। लेकिन माता-पिता के बार-बार कहने पर वे मान गए। परिजन बाबा बख्शू शाह को लेकर हिसार से 12 किमी दूर स्थित गाँव मंगाली में एक घर में पहुंचे व रिश्ता पक्का करने के लिए बात चलाई।  बताते हैं कि बाबा बख्शू शाह का हुलिया(वेशभुषा) देखकर लड़की के परिजनों ने काफी तंज कसे। उनका कहना था कि फकीर बंदा है, इसके पल्ले(पास) कुछ नहीं है। हमारी बेटी को कहाँ रखेगा, क्या खिलाएगा। ऐसे तंज कसकर उन्होंने बाबा बख्शू से बेटी का विवाह करने से साफ इंकार कर दिया। माता-पिता बख्शू शाह को लेकर लोहारी लौट आए। बताते हैं कि उसके बाद बाबा बख्शू शाह पर तंज कसने वाले उस घर में ऐसी नौबत आ गई कि उनका सब कुछ बर्बाद हो गया। वह परिवार अब दाने-दाने का मोहताज हो चुका था। कंगाली ऐसी कि दो वक्त की रोटी के भी लाले पड़ गए थे। वे परेशान होकर एक महात्मा के पास पुहंचे और अपनी सारी व्यथा सुनाई। उस महात्मा ने बताया कि आप वहीं गाँव लोहारी राघो गाँव में जाओ और उस पीर फकीर से माफी मांगों जिसका तुमने अपमान किया था, तब कहीं जाकर तुम्हारा कुछ भला हो सकता है। अब उन्होंने लड़की के मामा को गाँव लोहारी राघो भेजा और वे बाबा बख्शू शाह के घर आ पहुंचे और क्षमा याचना की। लड़की के मामा ने बाबा बख्शू शाह के विवाह के लिए रिश्ता पक्का करने का भी प्रस्ताव रखा। इस पर बाबा बख्शू शाह ने फरमाया कि, मेरी एक शर्त है वो यह कि यदि आप मेरे बारातियों व घोड़ों-बैलों का खर्चा करने को तैयार हैं तो हम भी विवाह के लिए तैयार हैं। लड़की के मामा ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और रिश्ता पक्का करने की बात कहकर लौट गए। अब वे इसी सोच में थे कि घर मेें खुद के खाने के लिए तो दो वक्त की रोटी है नहीं, इतने बारातियों और उनके घोड़े-बैलों को खाना कैसे खिलाएंगे। बताते हैं कि उनके घर में एक कमरा था जो अक्सर बंद रहता था। जब लड़की के परिजनों ने महीनों बाद उस बंद कमरे का दरवाजा खोला तो सामने का नजारा देखकर आश्चर्यचकित रह गए। पूरा कमरा अनाज से ठसाठस भरा देखकर  उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब वे पूरी तरह से समझ चुके थे कि ये(बाबा बख्शू शाह) कोई मामूली फकीर नहीं है। उन्होंने भगवान का लाख-लाख शुक्र अदा किया और विवाह की तैयारियों में जुट गए। गाँव लोहारी राघो से बाबा बख्शू शाह की बारात चली जिसमें  अनेक बैलगाड़ियों व घोड़ों पर बाराती सवार थे। विवाह में अनेक तरह के पकवान बनाए गए थे। सभी बारातियों ने पेट भरकार दावत खाई। बताते हैं कि विवाह के उपरांत जैसे ही बाबा बख्शू शाह की बारात वापिस लोहारी राघो के लिए प्रस्थान हुई, वैसे ही वो बचा हुआ सारा अनाज कमरे से अचानक गायब हो गया। बख्शू शाह के परिजनों से मिली जानकारी मुताबिक बाबा बख्शू शाह के 5 बेटे  और दो बेटियों समेत 7 संतान थी। बाबा बख्शू शाह के बेटे चांद खां का जन्म वर्ष 1775 में हुआ जो महज 17 वर्ष की आयु में 1792 में ही स्वर्ग सिधार गए थे। आज भारत व पाकिस्तान दोनों जगह बाबा बख्शू की समाधी के बार्इं तरफ  बाबा चांद खां की भी समाधी बनी है। बाबा बख्शू शाह की एक बेटी का नाम सीमा था। अब बाबा बख्शू शाह के बेटे मोहम्मद अली की नस्ल(पीढ़ी) चल रही है।

खेत में गेहूं की ढेरी और वो जिन्न,पढ़ें बाबा बख्शू शाह का अद्भुत करिश्मा 
बाबा बख्शू शाह कई बार पूजा-पाठ के उपरांत गाँव लोहारी राघो की गलियों व खेतों में भ्रमण को निकल जाया करते थे। एक बार की बात है। उन दिनों खेतों में गेहूं कटाई का समय चल रहा था। बताते हैं कि गाँव के किसान बाबा बख्शू शाह को बहुत ज्यादा सम्मान दिया करते थे। उस समय पूरे गाँव को यकिन था कि ये फकीर(बाबा बख्शू शाह) जो वचन कर देगा वो 100 फीसद सच होगा। तो बाबा बख्शू शाह खेतों में भ्रमण के लिए निकल पड़े। एक खेत में गेहूं निकाली जा रही थी। बाबा बख्शू शाह को अपने खेत में देख वह किसान बहुत प्रसन्न हुआ और उसने बाबा बख्शू शाह को सजदा (प्रणाम) कर पूछा कि,‘‘बाबा जी! गेहूं कितनी निकलेगी।’’ बाबा बख्शू शाह ने कहा, ‘‘तुझे कितनी चाहिए, ये बता।’’ तो किसान ने बताया कि मुझे इतनी चाहिए। अब बाबा बख्शू शाह ने कहा कि चल अपनी तोल ले और बाकि पर कपड़ा डाल दे। किसान गेहूं को तोलने लगा। जितनी गेहूं वो किसान चाहता था, उतनी तोलने के उपरांत उसने बची-खुची थोड़ी सी गेहूं पर कपड़ा डाल दिया। तोली हुई गेहूँ बोरियों(बैगों) में भरकर अलग रख दी गई। थोड़ी देर बाद बाबा बख्शू शाह ने उस किसान को गेहूं के ढ़ेर से कपड़ा हटाने को कहा। जैसे ही कपड़ा हटाया गया तो वहां खड़े सभी किसान व मजदूर सामने का नजारा देख हतप्रभ रह गए। जितनी गेहूं उस ढेरी में से निकालकर तोली गई थी लगभग उतनी ही गेहूं फिर से उस ढेरी में दिखाई दे रही थी। अब किसान को लालच आने लगा था। बाबा बख्शू शाह यह भांप चुके थे। उन्होंने किसान को उस ढेरी पर दोबारा कपड़ा डालने के लिए कहा। अब दोबारा कपड़ा डाला गया। थोड़ी देर बाद बाबा बख्शू शाह ने फिर से कपड़ा हटाने को कहा। इस बार किसान ने कपड़ा हटाया तो सभी की आंखें फटी की फटी रह गई। सारी की सारी गेहूँ वहाँ से गायब थी। वहाँ खड़े सभी मजदूर यह नजारा देखकर इतने ज्यादा हैरान थे कि उन्हें कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर ये हो क्या रहा है? इस  दौरान बाबा बख्शू शाह वहाँ पास में स्थित पानी के कच्चे खाले(खेत में पानी लगाने के लिए खोदा गया नाला)की तरफ देखकर हंसने लगे और फरमाया कि, ‘‘वो देखो , लंगड़ा जिन्न (भूत-प्रेत) खाले में गिर गया। वहाँ मौजूद सभी किसान-मजदूर उस खाले(नाले) की तरफ निहारने लगे, लेकिन उन्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। उन्होंने बाबा से पूछा कि आप क्यों हंस रहे हो, हमें  तो कोई जिन्न नहीं नजर आ रहा। इस पर बाबा बख्शू शाह ने कहा,  ‘‘अरे भाई ! वहाँ खाले में जाकर देखो तो सही, लंगड़ा जिन्न गिर गया है।’’ जब वे किसान-मजदूर खाले के पास गए तो वो सारी की सारी गेहूं उस खाले में पड़ी थी। तो ऐसे-ऐसे सैकड़ों करिश्मे दिखाए बाबा बख्शू शाह ने। लोहारी राघो में जन्मे वृद्धों ने इस करिश्मे को अपने जीवन काल में कभी न कभी जरूर सुना होगा।                                                                                                                               
जब बाबा बख्शू शाह को नयाना(रस्सी) से मारने वाले के शरीर पर छप गए निशान
एक बार बाबा बख्शू शाह गाँव लोहारी राघो की गली से गुजर रहे थे। उस समय गाँव का कोई पशुपालकगली में अपनी भैंस/गाय का दूध निकाल रहा था। दूध निकालने के लिए उसने पशु के दोनों पैर नयाना(रस्सी) से बांधे हुए थे। जैसे ही बाबा बख्शू शाह उस दूध निकाल रहे सज्जन के पास से निकले तो वो पशु बिदक(डर) गया और छटपटाने लगा। इस तरह वो दूध का बर्तन गिरने से सारा दूध नीचे बह गया। अब उस पशुपालक को बहुत गुस्सा आया और पशु के पैरों से वो नयाना(रस्सी) निकालकर बाबा बख्शू शाह पर कोड़े बरसाने लगा। बताते हैं कि बाबा बख्शू शाह ने उस पशुपालक को कुछ नहीं कहा और अल्लाह की जैसी मर्जी मानकर वहाँ से चले गए। अब उस पशुपालक ने बाबा बख्शू-शाह को जिस-जिस जगह नयाना(रस्सी) से मारा था, ठीक उसी जगह उस पशुपालक के शरीर पर निशान छप गए और असहनीय पीड़ा होने लगी। तकलीफ इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि अब वो पशुपालक बाबा बख्शू शाह के डेरे पर गया और उनके चरणों में  गिरकर माफी मांगने लगा। बाबा बख्शू शाह ने उस पशुपालक को गले से लगा लिया और माफ करते हुए फरमाया कि,‘‘आपने जो किया वो आपके कर्म, लेकिन हमारा भी अल्लाह, राम है भाई, उसे यह अच्छा नहीं  लगा होगा।’’ अब उस पशुपालक ने अपने सभी पशुओं के पहले दिन का दूध बाबा बख्शू शाह के नाम कर दिया। जब भी कोई पशु बयाता (बच्चे को जन्म देता) तो वह पशुपालक प हले दिन का दूध बाबा बख्शू शाह के डेरे पर दे आते।              

जब बाबा बख्शू शाह ने लोहारी के चारों तरफ खींच दी थी लक्ष्मण रेखा 
पीर बाबा बख्शू शाह ने अपने जीवन काल में ऐसे-ऐसे करिश्मे दिखाए जिन्हें सुनकर आप भी हैरान रह जाएंगे। बाबा बख्शू शाह के परिजनों से मिली जानकारी मुताबिक लोहारी राघो पर अंग्रेजी सेना ने कई बार धावा बोला था लेकिन यहाँ के वीर योद्धाओं ने उनका डटकर मुकाबला किया। ऐसे ही 17 वीं शताब्दी में एक बार अंग्रेजी सेना लोहारी राघो पर घेरा डालने के लिए गाँव की तरफ बढ़ रही थी। जब इस बारे बाबा बख्शू शाह को पता चला तो उन्होंने गाँव के चारों तरफ एक लकीर(लक्ष्मण रेखा) खिंच दी थी और वचन किए थे कि लोहारी राघो का कोई भी बाशिंदा इस लकीर को लांघकर दूसरी तरफ न जाए लेकिन बताते हैं कि इस दौरान एक मलंग (मंदबुद्धि) व्यक्ति आ टपका और ग्रामीणों को लकीर के उस तरफ जाने के लिए उकसाने लगा। काफी लोग उसके बहकावे में आ गए और लकीर (लक्ष्मण रेखा) लांघ गए। इस अंग्रेजी हमले में लोहारी राघो के अनगिनत लोग मारे गए थे। मृतकों में सभी लक्ष्मण रेखा लांघने वाले ही लोग थे। इस खून-खराबे के बाद ग्रामीणों को उकसाने वाला वह मलंग(मंदबुद्धि) भी दोबारा कभी नजर नहीं आया।

बेटी की डोली के समय किया वचन हुआ पूरा 
अपनी बेटी सीमा के विवाह के समय बाबा बख्शू शाह ने जो वचन किए वे ज्यों के त्यों पूरे हुए। बाबा बख्शू के परिजनों से मिली जानकारी के मुताबिक बाबा बख्शू शाह की बेटी का नाम सीमा था। जब सीमा की शादी हो रही थी तो बारात बैलगाड़ियों से आई थी। यातायात की कोई व्यवस्था न होने के कारण उस समय हर कार्य में बैलगाड़ियों का ही इस्तेमाल किया जाता था। बारात विदाई के समय सीमा अपने पिता बख्शू शाह से लिपट कर रोने लगी और दूल्हे के साथ न जाने की जिद्द पर अड़ गई। बाबा बख्शू शाह ने कहा कि, बेटा रो क्यूं रही है, राम-अल्लाह ने चाहा तो तू कल ही वापिस आ जाएगी। पीर-फकीरों के मुख से निकले हर वचन में कोई न कोई राज जरूर होता है। वचन तो पूरा होना ही था। बताते हैं कि जब बारात बैलगाड़ियों से वापिस जा रही थी तो बीच रास्ते वही बैलगाड़ी पलट गई जिस पर सीमा अपने दूल्हे के साथ बैठी थी। बताते हैं कि बैलगाड़ी के पहिये के नीचे दबने से दूल्हे की मौके पर ही मौत हो गई और सीमा ससुराल पहुंचने से पहले ही वापिस अपने पिता बख्शू शाह के पास लोहारी राघो लौट गई।

मलबे में बदल गए बाबा बख्शू शाह के दरबार में आग लगाने वालों के घर 
बाबा बख्शू शाह ने लोहारी राघो ही नहीं पाकिस्तान में भी अनेक चमत्कार दिखाए। बाबा बख्शू शाह की पांचवीं पीढ़ी के असगर अली बताते हैं कि वर्ष 1947 में उनके पिता इमाम अली ने लोहारी राघो से पाकिस्तान आने के उपरांत यहाँ गाँव टिब्बा रावगढ़ में बाबा बख्शू शाह का दरबार बनवाया था। दरबार के ऊपर लकड़ी व पत्तों से छत भी लगाई थी। बताते हैं कि गाँव के ही कुछ शरारती तत्वों ने मजार की छत में आग लगा दी। आग लगाने वाले शरारती तत्व जब अपने घर पहुंचे तो उनके घर भी मलबे में तब्दील हो चुके थे। उनके घर की छतें भी पूरी तरह गिर चुकी थी। वे वापिस दौड़े-दौड़े आए और बाबा बख्शू शाह से बख्शीश मांगने लगे।

रमजान के 18वें दिन समा गए ज्योति जोत 
बाबा बख्शू शाह ने सभी को सर्वधर्म सद्भाव के साथ-साथ रूहानियत व इंसानियत की शिक्षा दी। वर्ष 1807 में  रमजान के पाक-पवित्र माह के 18वेें दिन यानि 18वें रोजे वाले दिन बाबा बख्शू शाह ज्योति जोत समा गए। आज बाबा बख्शू शाह की तपस्थली वाली जगह(समाधी स्थल वाला स्थान) पर ही बाबा बख्शू शाह की कब्र शरीफ बनाई गई है। बाबा बख्शू शाह के बेटे चांद खां की समाधी भी बाबा बख्शू शाह की समाधी के बार्इं और बनाई गई है।



     
अब पाकिस्तान के गाँव टिब्बा रावगढ़ में है बाबा बख्शू शाह का परिवार
गांव लोहारी राघो के अलावा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के जिला मुल्तान स्थित गाँव टिब्बा रावगढ़ में भी बाबा बख्शू शाह का दरबार बना है। यहाँ के लोगों में भी बाबा बख्शू शाह के प्रति अगाध आस्था जुड़ी है। पाकिस्तान के टिब्बा रावगढ़ स्थित बाबा बख्शू शाह के इस दरबार में भी बाबा बख्शू शाह के साथ-साथ उनके बेटे  चांद खां की भी कबर शरीफ(समाधी स्थल)बनी हैं। दरअसल यह गाँव वर्ष 1947 में मूल रूप से भारतवर्ष के हरियाणा प्रांत के जिला हिसार के गाँव लोहारी राघो से गए मुस्लिम परिवारों ने ही बसाया था। भारत-पाक विभाजन के समय गाँव लोहारी राघो से गए 100 से भी ज्यादा परिवार पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के जिला मुल्तान से 35 किमी. दूर स्थित टिब्बा रावगढ़ में जाकर बस गए। गाँव लोहारी राघो छोड़कर जाने वाले इन परिवारों में बाबा बख्शू शाह के पड़पोते इमाम अली (चौथी पीढ़ी) का परिवार भी था जो आज भी यहाँ टिब्बा रावगढ़ में रह रहा है। इमाम अली का तो 115 वर्ष की आयु में 10 मई 2009 को निधन हो गया लेकिन इमाम अली की धर्मपत्नी जुलेखा बीबी व बहन सलमाँ बीबी आज भी जीवित हैं। इमाम अली की धर्मपत्नी जुलेखा बीबी भारत में लोहारी राघो से 50 किमी की दूरी पर स्थित जिला हिसार के गाँव दाहिमा की रहने वाली थी जो कि अब पाकिस्तान के इसी गाँव में रह रही हैं जबकि इमाम अली की बहन यानि बाबा बख्शू शाह की पड़पोती सलमाँ बीबी भी इसी गाँव में आबाद हैं। इमाम अली के बेटे असगर अली व उनके पोते कामरान राव व इमरान भी यहीं टिब्बा रावगढ़ में रह रहे  हैं।

ये हैं बाबा बख्शू शाह की पीढ़ियाँ

  • जुल्फकार खान
  • बख्शू शाह 
  • मोहम्मद अली
  • नबीब बख्श
  • इमाम अली, इस्लामद्दीन, निहाद मोहम्मद उर्फ निहात व सलमाँ बीबी 
  • असगर अली
  • कामरान राव, इमरान 
                                                                      आज भी जोर-शोर से बज रहा बाबा बख्शू शाह के नाम का डंका 
बाबा बख्शू शाह धाम लोहारी राघो के सेवादार अर्जुन सिंह 
300 साल पूर्व बाबा बख्शू शाह की तपोभूमि रहे गाँव लोहारी राघो में आज भी बाबा बख्शू शाह के नाम का डंका बज रहा है। लोहारी राघो व आस-पास के ग्रामीण इलाके के साथ-साथ बाबा बख्शू शाह धाम जन-जन की आस्था का केंद्र बना है। लोगों की बाबा बख्शू शाह से अगाध आस्था जुड़ी है। बाबा बख्शु शाह की तपस्थली लोहारी राघो में हरियाणा, पंजाब, दिल्ली समेत दूर-दूर से श्रद्धालुओं के आने का क्रम अनवरत जारी रहता है। गाँव के उत्तर-पूर्व में स्थित बाबा बख्शू शाह के कब्र शरीफ यानि समाधी स्थल पर मन्नत मांगने के लिए देशभर के कोने-कोने से अकीदतमंद पुहंच रहे हैं। हर वीरवार व अमावस्या के दिन बाबा बख्शू शाह समाधी स्थल(खानगाह)पर मेले जैसा माहौल रहता है। इस दिन यहां सभी धर्मों के श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती है। श्रद्धालु बाबा बख्शू शाह के समक्ष श्रद्धा से शीश झुकाकर प्रसाद चढ़ाते हंै व मन्नत के साथ-साथ सुख-शांति की दुआ मांगते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दरबार में सिर झुकाने वालों को कहीं और सिर झुकाने की जरूरत नहीं पड़ती। उनकी मुराद बाबा खुद पूरी कर देते हैं और बाबा की कृपा से मनोवांछित फल भी प्राप्त होते हैं। बता दें कि आजादी से लकेर अब तक बाबा बख्शू शाह की दरगाह की देखभाल का जिम्मा एक ही परिवार निभाता आ रहा है। सबसे पहले वर्ष 1947 में सूरता राम ने बाबा बख्शू शाह धाम की देखभाल का जिम्मा संभाला था। सूरता राम के मरणोपरांत उनके बेटे भीम सिंह ने कई सालों तक खानगाह की देखभाल की और अब वर्तमान में भीम सिंह के भाई सेवादार अर्जुन सिंह बाबा बख्शू धाम की सार-संभाल कर रहे हैं।
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