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जानें किसके नाम पर हुआ ऐतिहासिक गाँव ‘लोहारी राघो’ का नामकरण, पढ़ें दिलचस्प कहानी

                                               संदीप कम्बोज www.lohariragho.in

लोहारी राघो। ऐतिहासिक गाँव लोहारी राघो से विस्थापित होकर पाकिस्तान के पंजाब में मुल्तान स्थित डेरा मुहाम्मदी में रहने वाले 98 वर्षीय मुहम्मद सुलेमान की मानें तो गाँव का नाम मुसलमान लुहारों व रांगड़ों के नाम पर लोहारी राघो पड़ा था। (Know-on-whose-name-the-historical-village-Lohari-Ragho-was-named) वे बताते हैं कि वर्ष 1947 से पहले इस गाँव में करीब 70 फीसद आबादी मुसलमानों की थी बाकि 30 फीसद परिवार हिंदु समुदाय के थे। गाँव में सबसे ज्यादा दबदबा मुसलमान लोहारों का था जिनका मुख्य पेशा खेती के औजार व सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक हथियार आदि बनाना था। मुसलमान लोहारों के कारण गाँव का नाम लोहारी पड़ गया। बाद में यहाँ दूसरे गाँवों से आए रांगड़ मुसलमानों ने शरण ली और अपना ठिकाना बना लिया। लेकिन लोहार मुसलमान नहीं चाहते थे कि रांगड़ मुसलमान भी यहाँ रहें। वे रांगड़ मुसलमानों को गाँव से खदेड़ना चाहते थे। उस समय यहाँ बब्बु साहब का राज था तथा सभी ग्रामीण उसका फैसला मानते थे। उससे लोहारों व रांगड़ मुसलमानों के बीच रोज-रोज के झगड़ों को देखा नहीं गया। बब्बु साहब ने रांगड़ मुसलमानों को भी यहां निवास करने का अधिकार दे दिया। इस तरह से रांगड़ मुसलमान भी यहाँ बस गए और तबसे ही गाँव को लोहारी राघो कहा जाने लगा। गाँव लोहारी राघो निवासी 93 वर्षीय उजाला राम संभरवाल बताते हैं कि आजादी से पहले गाँव लोहारी राघो में करीब 50-60 हिंदु परिवार रह रहे थे जिनमें करीब 15-20 परिवार एससी समाज, 15-20 परिवार बनिया समाज, 10-12 परिवार धानक समाज, 10-15 परिवार सैनी समाज, 5-7 परिवार जांगड़ा समाज तथा 4-5 परिवार नाई समाज तथा 2-3 परिवार रोहिला समाज के थे। वर्ष 1947 में भारत-पाक विभाजन के समय लोहारी राघो में रहने वाले मुस्लिम परिवार पाकिस्तान चले गए जबकि पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए अरोड़ा, सिख व कम्बोज समाज के सैकड़ों परिवारों ने यहाँ शरण ली। ऐसा पहली बार था जब लोहारी राघो पूरी तरह से हिंदु गाँव बना था और यहाँ एक भी मुस्लिम परिवार शेष नहीं बचा था।  


चार पानों में बंटा था लोहारी राघो, मिल-जुलकर रहते थे हिंदू-मुस्लिम परिवार  
103 वर्षीय बनवारी लाल सरोहा के मुताबिक आजादी से पहले गाँव लोहारी राघो चार पानों में बंटा था। स्यहण पाना, फतेहदान पाना, गाल पाना और पाइया पाना। गाँव के पश्चिम दिशा में स्थित गाल पाना में सैनी समाज के परिवार आबाद थे जबकि बाकि सभी पानों में हिंदू व मुस्लिम परिवार मिल-जुलकर प्यार मोहब्बत से रहते थे। होली, दीवाली हो या ईद, दोनों समुदायों के लोग मिल-जुलकर हर्षोल्लास से मनाते थे। शादी-ब्याह समेत हर खुशी व गम के अवसर पर भी दोनों समुदाय के लोग एक साथ नजर आते थे। गाँव के हिंदू व मुसलमानों के बीच किसी प्रकार का कोई विवाद या दंगा-फसाद कभी नहीं हुआ था।

400 साल से भी पुराना ऐतिहासिक रोघी खाप चबुतरा
लोहारी राघो में चार शताब्दी से भी ज्यादा समय से न केवल 24 गाँवों की रोघी खाप का मुख्यालय रहा है बल्कि रोघी खाप का ऐतिहासिक चबुतरा भी यहीं विद्यमान था। पड़ोसी गाँव डाटा व मसूदपुर के कुछ वृद्धों का मानना है कि आज से करीब 300-400 साल पहले तक गाँव लोहारी राघो में कुछ जाट परिवार भी आबाद थे। जिनमें कुछ हिंदु जाट तो कुछ मुस्लिम जाट थे। बताया जाता है कि वर्ष 1987 तक भी गाँव लोहारी राघो में रोघी खाप का ऐतिहासिक चबुतरा मौजूद था। यह ऐतिहासिक चबुतरा हांसी वाले जोहड़ में पूर्व की तरफ एक महलनुमा भवन में बनाया गया था लेकिन आज इसका नामो-निशान भी खत्म हो गया है। बताते हैं कि आजादी से पहले जब यहाँ रोघी खाप की पंचायत का आयोजन होता था तो मुसलमानों के लिए हुक्का-पानी व भोजन का प्रबंध अलग होता था और हिंदुओं के लिए अलग। आजादी के बाद भी कई सालों तक हांसी वाले जोहड़ किनारे स्थित विशाल बरगद के पेड़ के नीचे रोघी खाप की पंचायत का आयोजन होता रहा है। पड़ोसी गाँव मसूदपुर का इतिहास लिखने वाले लेखक ज्ञान चंद आर्य बताते हैं कि आजादी से पहले गाँव लोहारी राघो में जाट परिवारों की संख्या काफी थी लेकिन ज्यादातर हिंदू जाट,  मुसलमानों के प्रकोप के कारण या तो मुसलमान बन गए थे या फिर गाँव छोड़कर अन्य गाँवों को चले गए।

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