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लोहारी राघो में धूमधाम से मनाई जाएगी संत कबीर जयंती, निकाली जाएगी नगर यात्रा, रात को होगा जागरण, जानें कौन थे संत कबीर दास जी


प्रवीन खटक । www.lohariragho.in

लोहारी राघो। 15वीं सदी के महान भारतीय संत, विचारक व रहस्यवादी कवि कबीर दास जी की 624वीं जयंती गाँव लोहारी राघो स्थित कबीर मंदिर में धूमधाम व हर्षोल्लास से मनाई जाएगी।(Sant-Kabir-Jayanti-will-be-celebrated-in -Lohari-Ragho-today) समस्त धानक समाज व युवा संगठन लोहारी राघो द्वारा संत कबीर मंदिर लोहारी राघो में आयोजित विशाल कार्यक्रम का शुभारंभ प्रात: 10 बजे होगा। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रमुख समाजसेवी एडवोकेट सुशील खर्ब उगालन होंगे। दोपहर बाद गांव लोहारी राघो में नगर यात्रा भी निकाली जाएगी जिसमें सुंदर-सुंदर झांकियां शामिल रहेंगी। तथा को कबीर मंदिर में जागरण का भी आयोजन किया जाएगा। संत कबीर जयंती को लेकर गाँव में खुशी का माहौल है तथा इसके लिए सभी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। बता दें कि संत कबीरदास जी 15वीं सदी के एक ऐसे महान भारतीय संत थे जिन्होंने हिन्दू धर्म या इस्लाम को न मानते हुए धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और मानव सेवा के प्रति अपना जीवन समर्पित कर दिया। कबीर दास जी ने समाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना करते हुए ज्ञान की अलख जगाई। संत कबीर दास जी संत रविदास जी व श्री गुरु नानक देव जी के समकालीन थे। कबीर दास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे तथा वे एक ही ईश्वर को मानते थे। वे अंधविश्वास, धर्म व पूजा के नाम पर होने वाले आडंबरों के विरोधी थे। उन्होंने ब्रह्म के लिए राम, हरि आदि शब्दों का प्रयोग किया है।  उनके अनुसार ब्रह्म को अन्य नामों से भी जाना जाता है।  समाज को उन्होंने ज्ञान का मार्ग दिखाया जिसमें गुरु का महत्त्व सर्वोपरि है।  कबीर स्वच्छंद विचारक थे।  उन्होंने लोगों को समझाने के लिए अपनी कृति सबद, साखी और रमैनी में सरल और लोक भाषा का प्रयोग किया है। उनके विचार आज के समय में भी बेहद प्रासंगिक हैं।  हमेशा खरी-खरी बातें करने वाले कबीर दास को उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायों से धमकियां तक मिलीं। प्रति वर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन उनकी जयंती मनाई जाती है। आज संत कबीरदास की 645 वीं जयंती है। माना जाता है कि संवत 1455 की इस पूर्णिमा को उनका जन्म हुआ था। कबीर दास जी के जन्म पर ही अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय है। कुछ लोगों का मानना है कि कबीर रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे जिसको भूल से पुत्रवती होने का रामानंद जी ने आशीर्वाद दे दिया था। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आई। इसके बाद 'नीमा' और 'नीरु' ने उनका पालन पोषण किया। वहीं कुछ का मानना है कि वह जन्म से ही मुसलमान थे और जुलाहे 'नीमा' और 'नीरु' की वास्तविक संतान थे। हालांकि कबीर दास जी ने खुद को जुलाहा कहा है।

जाति जुलाहा नाम कबीरा।
बनि बनि फिरो उदासी।।

कबीर दास जी ने पारंपरिक तरीके से कोई पढ़ाई नहीं की थी, वह पढ़े-लिखे नहीं थे। वह अपने दोहे केवल बोलते थो और उनके शिष्य उनके बोले हुए दोहे लिखते थे। कबीर ने स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखा उनके शिष्य ने उनके ग्रंथ लिखे हैं। इस पर कबीर जी का कहना है कि..


मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ।
चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात।।
भक्ति काल के उस दौर में कबीरदास जी ने अपना संपूर्ण जीवन समाज सुधार में लगा दिया था।  कबीरपंथी इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं। कबीर उनके आराध्य हैं।  माना जाता है कि कबीर दास जी का जन्म सन् 1398 ई के आसपास लहरतारा ताल, काशी के समक्ष हुआ था।  उनके जन्म के विषय में भी अलग-अलग मत हैं। कबीर जी की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है स्थान विशेष के कारण नहीं। अपनी इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए अंत समय में वह मगहर चले गए क्योंकि लोगों की मान्यता थी कि काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक मिलता है।  मगहर में उन्होंने अंतिम सांस ली। आज भी वहां पर मजार व समाधी स्थित है।  उनके लेखन में बीजक, सखी ग्रंथ, कबीर ग्रंथावली और अनुराग सागर शामिल हैं।  कबीर के काम का प्रमुख हिस्सा पांचवें सिख गुरु, गुरु अर्जन देव द्वारा एकत्र किया गया था, और सिख गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल किया गया था। कबीर के काम की पहचान उनके दो लाइन के दोहे हैं, जिन्हें कबीर के दोहे के नाम से जाना जाता है।  कहते हैं कि उनके निधन के पश्चात जब उनके देह को जलाने अथवा दफनाने के लिए हिंदू और मुसलमानों में विवाद हुआ तो, आपसी सहमति से उनके मृत देह से चादर हटाया गया तो वहां कुछ पुष्प ही नजर आये।  कहा जाता है कि उन पुष्पों को हिंदू और मुसलमानों में आपस में बांट लिया और अपने धर्मों के अनुरूप दोनों ही समुदाय ने उनका अंतिम संस्कार किया।                     

कबीर दास जी ने अपने दोहों के जरिए हिंदू धर्म को निशाने पर लिया तो वहीं मुस्लिम धर्म पर भी उन्होंने जमकर कटाक्ष किया और तर्कवादी और मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि रखा।          
    
पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
ताते यह चाकी भली, पीस खाए संसार।।

कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥

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