Gadar आफ लोहारी राघो : जानें 75 साल पहले क्यों दहाड़े थे अंग्रेज सेना के टैंक और कैसे टूटा था गाँव लोहारी राघो, पढ़ें बंटवारे की खौफनाक कहानी
1947 में ब्रिटिश सेना ना संभालती मोर्चा तो हरियाणा में होता एक और मेवात !
- लोहारी राघो, मोठ व आस-पास का इलाका आज बन चुका होता मिनी पाकिस्तान
- ब्रिटिश सेना द्वारा किए 12वें हमले में गई थी सैकड़ों मुसलमानों की जान तो रातों-रात गाँव छोड़कर भागे थे पाकिस्तान
- विभाजन के दो माह बाद भी गाँव से पलायन करने को तैयार नहीं थे मुसलमान
- आस-पास के कई गाँवों के मुसलमानों ने लोहारी राघो में एकजुट होकर लगा लिए थे मोर्चे
- गाँव खाली करवाने को पड़ोसी गाँवों के ग्रामीणों ने किए थे दर्जनभर अटैक
विभाजन
या बंटवारा किसी देश, भूमि या सीमा का नहीं होता। विभाजन तो लोगों की
जिंदगी, भावनाओं का हो जाता है जो इतने गहरे जख्म दे जाता है कि आने वाली
कई नस्लों की जिंदगी भी उन खौफनाक पलों को याद कर सिहर उठती है। आज हम आपको
75 साल पुरानी भारत विभाजन की एक ऐसी ही अनसुनी रुह कंपा देने वाली
दास्तान बताने जा रहे हैं जिस पर आज तक न ही तो किसी भारतीय इतिहासकार की
नजर गई और न ही फिल्मकार की। यह कहानी हैअपने पूर्वजों की यादों और वतन की
मिट्टी से लिपटकर रहने की चाहत रखने वाले उन मुसलमानों की जो विभाजन के बाद
भी पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे। बस इसी चाहत में हुक्मरानों द्वारा किए
विभाजन के फैसले को दरकिनार कर सेना से भिड़ गए। हम बात कर रहे हैं हरियाणा
के जिला हिसार में तहसील नारनौंद स्थित गाँव लोहारी राघो की जहां आज से 75
साल पहले बंटवारे का वो खूनी अध्याय लिखा गया जिसे आज तक इतिहास के किसी भी
पन्ने में जगह नहीं मिल पाई। मुसलमानों का सबसे बड़ा गढ़ माने जाने वाले
गाँव लोहारी राघो से मुसलमानों को खदेड़ने के लिए ब्रिटिश सेना द्वारा जो
कत्ले आम किया गया, उसे याद कर आज भी रुह कांप उठती है।
14 अगस्त 1947
का वह मनहूस दिन जब सियासतदानों की गंदी व खुदगर्ज राजनीति की बदौलत धर्म
और मजहब के नाम पर भारत का विभाजन कर दिया गया। बंटवारे के इस काले अध्याय
का हर पन्ना मनुष्यता के खून के छींटों से भरा है। धर्म के आधार पर
हिन्दुओं के लिए भारत तो मुस्लमानों के लिए अलग मुल्क बनाया गया पाकिस्तान।
तय हुआ कि सभी हिन्दु भारत में रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में। 15 अगस्त
1947 को आजादी के तुरंत बाद ही दोनों मुल्कों में पलायन शुरू हो गया।
पाकिस्तान में रहने वाले हिंदु व सिक्ख भारत आ रहे थे तो भारत में रहने
वाले मुसलमान पाकिस्तान में जाने लगे। लेकिन हरियाणा के जिला हिसार के
तहसील हांसी(उस समय)स्थित मुस्लिम बाहुल्य गाँव लोहारी राघो के मुसलमानों
ने पाकिस्तान जाने से साफ इन्कार कर दिया और दो टूक कहा कि वे किसी कीमत पर
अपनी जमीन को छोड़कर नहीं जाएंगे, वे यहीं पर मिनी पाकिस्तान बना देंगे
चाहे अंजाम कुछ भी हो। लोहारी राघो के मुसलमानों द्वारा किए इस विद्रोही
ऐलान के बाद आस-पास के गाँवों के हिंदू परिवारोें के साथ-साथ ब्रिटिश सेना
के भी हाथ-पाँव फूल गए थे क्योंकि पूरे भारतवर्ष में किसी भी गाँव-शहर
कस्बे में ऐसी नौबत नहीं आई थी। देश के सभी हिस्सों से मुसलमान शांतिप्रिय
तरीके से गाँव खाली कर पाकिस्तान जा रहे थे। लोहारी राघो के अलावा भी
हरियाणा में रांगड़ मुसलमानों के बड़े गाँव, शहर व कस्बे थे जैसे कि जुंडला,
असंध, निसिंग, मुनक, भाटला, चांदी, बहशी, पुट्ठी, कान्ही आदि। लेकिन सभी
गाँवों के मुसलमान सरकार द्वारा किए विभाजन के फैसले के अनुसार शांतिप्रिय
तरीके से पाकिस्तान जा रहे थे। गाँव न छोड़ने का फैसला सिर्फ और सिर्फ
लोहारी राघो के मुसलमानों ने ही लिया था और यहाँ आस-पास के कई गाँवों के
मुसलमानों ने एकजुट होकर मोर्चे लगा लिए थे। लेकिन अंगे्रज सेना के टैंकों
के सामने जो भी आया, बच न पाया। सेना के गाँव में घुसने पर मुसलमानों में
भगदड़ मच चुकी थी। हर कोई अपनी जान बचाने की जुगत में था। कोई छतों के
रास्ते भाग रहा था तो कोई छिपने के लिए तलाश रहा था सुरक्षित ठिकाना। गाँव
लोहारी राघो की धरती खून से लाल हो चुकी थी। चहुं ओर लाशें बिछी थी।
गलियों-नालियों में हर तरफ बह रहा था तो इंसानों का खून। किसी ने पिता खोया
तो किसी ने भाई, चाचा, ताऊ तो किसी ने अपना बेटा। इस नरसंहार में सैकड़ों
मुस्लमान मारे गए। वर्ष 1947 में विभाजन के बावजूद भी आखिर गाँव खाली करने
को क्यों तैयार नहीं थे मुसलमान, क्या थे यहाँ के मुसलमानों के खतरनाक
मंसूबे, ब्रिटिश सेना ने कैसे संभाला मोर्चा और कैसे टूटी लोहारी? गदर आॅफ
लोहारी राघो में पहली बार विस्तार से पढें कभी मुसलमान बाहुल्य गाँव रहे
लोहारी राघो के इतिहास से जुड़ी अनोखी, अनसुनी दास्तान। बता रहे हैं संदीप कम्बोज
हिसार। 14 अगस्त 1947 को हुए भारत-पाक विभाजन के दो माह बाद भी यहाँ रहने वाले मुसलमान किसी भी कीमत पर पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं थे। उन्होंने तय कर लिया था कि वे यहीं पर मिनी पाकिस्तान बना देंगे, चाहे अंजाम कुछ भी हो। आस-पास के कई गाँवों के मुसलमान परिवारों ने एकजुट होकर लोहारी में डेरा डाल लिया था तथा गाँव के चारों तरफ गहरी खाई (नाला)खोदकर उसमें पानी भर दिया था ताकि पुलिस, सेना का कोई वाहन या कोई भी बाहरी व्यक्ति गाँव में प्रवेश न कर सके। गाँव के चारों तरफ मोर्चे लगाए गए थे जिसे तोड़ने के लिए आस-पास के गाँव सिसाय, बयाना खेड़ा, हैबतपुर, राखी शाहपुर, फरमाना समेत कई गाँवों के हिंदूओं खासकर जाटों ने एड़ी चोटी का जोर लगाया। इन गाँवों के लोगों द्वारा लोहारी राघो पर कुल 11 बार अटैक किए गए लेकिन कोई भी इन्हें भेदकर गाँव में घुस नहीं पाया और मुसलमानों से गाँव खाली करवाने यानि लोहारी को तोड़ने में असमर्थ रहे। आस-पास के गाँवों के लोगों व पूरे हिसार जिला की पुलिस द्वारा हथियार डाल दिए जाने के बाद अंग्रेज सेना ने सही समय पर सही फैसला लेते हुए स्वंय मोर्चा संभाला तथा 19 अक्तूबर 1947 के दिन पूरे गाँव को घेर लिया। ब्रिटिश सेना ने मुसलमानों द्वारा लगाए सभी मोर्चों को तोड़ते हुए सैकड़ों मुसलमानोें को मौत के घाट उतार डाला। 19 अक्तूबर 1947 के दिन अंग्रेज सिपाहियों द्वारा की गई इस गोलीबारी में करीब 300 से भी ज्यादा मुसलमान मारे गए तो भय से कांपते मुसलमानों ने रातों-रात गाँव छोड़ने का फैसला लिया और कबीले (झुंड)बनाकर गाँव डाटा, गुराना होते हुए बरवाला की तरफ प्रस्थान कर गए। कुछ दिन बरवाला में रुकने के उपरांत भूना, डबवाली व फाजिल्का होते हुए पाकिस्तान के पंजाब प्रांत स्थित मुलतान पहुंचे तथा वहाँ से पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जाकर बस गए।
लोहारी के कुख्यात डाकू हाकम अली सक्का घोड़ी वाले के हाथ थी विद्रोह की कमान
लोहारी राघो के गदर में सबसे अहम किरदार था हाकम अली सक्का जो कि घोड़ी वाले के नाम से मशहूर था तथा विभाजन के बाद मुसलमानों द्वारा छेड़े गए विद्रोह का नेतृत्व कर रहा था। हाकम अली सक्का उस समय का वह गब्बर सिंह था जिसके नाम से ही हर कोई सहम जाता था। हाथ में खूंखार भाला लिए जब वह कुख्यात बदमाश घोड़ी पर सवार होकर निकलता तो सभी भागकर घरों में दुबक जाते और दरवाजे बंद कर लेते। गलियों में एकदम सन्नाटा पसर जाता। ठीक वैसे, जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों में जब डाकू घोड़ों पर सवार होकर गाँव, बस्ती में आते थे तो लोग खौफ में दरवाजे बंद कर घरों में कैद हो जाते थे। विभाजन से पहले ठीक ऐसा ही फिल्मी नजारा था गाँव लोहारी राघो का। क्या मजाल कोई घर से बाहर झांकने की भी हिम्मत कर जाए। कोई यदि गलती से भी सामने आ जाता, जिंदा न जाने पाता। बताते हैं कि हाकम अली सक्का का एक और मित्र था धनी सिंह जो कि गाँव मोठ का बताया जा रहा है। जब ये दोनों पीठ से पीठ मिलाकर लड़ते थे तो एक साथ सौ से भी अधिक लोगों को धूल चटाने का दम रखते थे। हाकम अली सक्का का एक नियम था कि रोजाना दिन में 3-4 बार गाँव के बाहर डेढ़ किमी तक का चक्कर लगाता था। इस दौरान जो भी उसके सामने आता, उसकी जान जाना लाजिमी था। रोजाना एक-दो को मौत के घाट उतारना उसके लिए मामूली बात थी। कई अंग्रेज सिपाहियों, ब्रिटिश पुलिस व सेना अफसरों, प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारियों सहित कई गाँवों के दर्जनों लोगों को मौत के घाट उतार चुका था लोहारी राघो का यह कुख्यात बदमाश। बताते हैं कि इसी वजह से उसकी सारी जिंदगी रेल और जेल में ही कटी। गाँव-गुवांड में किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उसके खिलाफ गवाही दे सके। इसी का फायदा उठाकर वह हर बार बरी हो जाता और फिर से कत्ल कर दोबारा जेल पहुंच जाता। 14 अगस्त 1947 को भारत-पाक विभाजन के उपरांत जब लोहारी राघो के मुसलमानों ने पाकिस्तान न जाने का फैसला लिया था तो उस समय विद्रोह का नेतृत्व हाकम अली सक्का ही कर रहा था।
हाकम अली सक्का ने कर दी थी सिसाय गाँव के कैप्टन रघुबीर सिंह की हत्या 15
अक्तूबर 1947 की बात है। दोपहर का समय था। सिसाय गाँव के चौधरी लाजपत राय
साहब के बेटे सेना के कैप्टन रघुबीर सिंह अपने पिता के साथ गाँव लोहारी
राघो की तरफ आ रहे थे। जैसे ही वे गाँव के दक्षिण दिशा में इदगाह(वर्तमान
मेें राजकीय वरिष्ष्ठ माध्यमिक विद्यालय के भीतरी भाग में स्थित) से करीब
300-400 मीटर की दूरी पर स्थित ड्रेन के पास पहुंचे तो अचानक सामने से गाँव
के कुछ रांगड़ मुसलमान आ गए और उन्हें घेर लिया। भीड़ में से किसी ने कैप्टन
रघुबीर सिंह के कमर पर बंधी बंदूक की गोलियों वाली बैल्ट उतार ली। इतने
में पीछे से घोड़ी पर सवार हाकम अली सक्का भी आ पहुंचा। हाकम अली को देख
भगदड़ मच गई तथा सभी रांगड़ मुसलमान भी भाग गए। चौधरी लाजपत राय साहब व
कैप्टन रघुबीर सिंह को भी मजबूरन बाजरे के खेत में छिपना पड़ा क्योंकि उनकी
गोलियों वाली बैल्ट को मुसलमानों ने छीन लिया था। चहुं ओर एकदम से सन्नाटा
पसर चुका था। हाकम अली सक्का की घोड़ी सिसाय रोड पर ड्रेन से काफी दूर तक
जाकर वापिस गाँव की तरफ लौट पड़ी थी। इधर चौधरी लाजपत राय साहब व उनके बेटे
कैप्टन रघुबीर सिंह बाजरे के खेत में छिपे थे। सूरज की भारी तपिश व गर्मी
के कारण वे पसीने से तर-बतर हो चुके थे। चहुंओर पसरे सन्नाटे से उन्हें लगा
कि अब सब मुसलमान चले गए हैं। जल्दी से बाहर निकलकर वापस सिसाय लौट जाना
चाहिए। बताया जाता है कि सड़क पर कोई है या नहीं, यह देखने के लिए जब कैप्टन
रघुबीर सिंह बाजरे के खेत में पक्षिओं को उड़ाने के लिए बने ....... पर चढ़े
तो इतने में हाकम अली सक्का दोबारा से वहाँ आ पहुंचा। इस बार हाकम अली ने
....पर चढ़े कैप्टन रघुबीर सिंह को देख लिया तथा भाला घोंप-घोंप कर बुरी तरह
से उनकी हत्या कर दी।
कैप्टन की मौत के बाद गम व गुस्से की आग में सुलग उठा था सिसाय, बदला लेने को खौल रहा था खून
बताते हैं कि जब कैप्टन रघुबीर सिंह की पार्थिव देह को उनके गाँव सिसाय लाया गया था तो गुस्से व करुण कु्रंदन से पूरा गाँव दहल उठा था। 16 अक्तूबर 1947 को कैप्टन रघुबीर सिंह को हजारों नम आंखों के बीच अंतिम विदाई दी गई थी। कैप्टन रघुबीर सिंह की अंतिम विदाई देने ब्रिटिश पुलिस व सेना के वरिष्ठ अफसर, प्रशासनिक अमला तथा भारी तादाद में ग्रामीण पहुंचे थे। कैप्टन की हत्या किए जाने से पूरा सिसाय गाँव गम व गुस्से की आग में सुलग रहा था। हर जुबां पर थी तो बस एक ही बात कि लोहारी राघो के मुसलमानों से कैप्टन की हत्या का बदला लिया जाए। बताते हैं कि कैप्टन रघुबीर सिंह की अंतिम विदाई के समय सिसाय गाँव में ही ब्रिटिश सेना ने लोहारी राघो को तोड़ने (खाली करवाने) का पूरा एक्शन प्लान तैयार कर लिया था। और दिल्ली से टैंक व मशीनगनें मंगवा ली गई थी जिन्हें गाँव में आते-आते तीन दिन लग गए। 19 अक्तूबर 1947 को दोपहर करीब 12 बजे दिल्ली से आए टैंक व मशीनगनें लोहारी राघो के दक्षिण दिशा में स्थित सिसाय की सड़क पर पहुंच चुकी थी। यहाँ बता दें कि उस समय हांसी-सिसाय सड़क पूरी तरह से कच्ची थी।
मुसलमानों ने गाँव के चहुंओर खोद दी थी खाई, लगाए गए थे मोर्चे, इदगाह पर था सबसे बड़ा मोर्चा
सेना
के वाहनों व टैंकों को रोकने के लिए मुसलमानों द्वारा लोहारी राघो के
चारों तरफ गहरी खाई(नाला) खोदकर मोर्चे लगाए गए थे। सबसे बड़ा मोर्चा दक्षिण
दिशा में स्थित इदगाह के पास लगाया गया था और सबसे ज्यादा मुसलमान भी यहीं
जुटे थे क्योंकि अंगे्रज सेना यहीं से अटैक करने की तैयारी में थी। हाकम
अली सक्का अब भी बाज नहीं आया और उसने लोहार मुसलमानों द्वारा बनाई एक देसी
तोफ से सेना पर गोले बरसाने शुरु कर दिए जिसमें दो जवान मारे गए तथा कई
बुरी तरह से जख्मी हो गए। बताया जाता है कि यह तोफ जहाँ आज अनाज मंडी है,
उसके पास स्थित एक पुराने पीपल के पेड़ के पास बनाई गई थी जिसे आजादी के बाद
भी कई सालों तक गाँव के कई बुजुर्गों ने अपनी आंखों से देखा है। यहाँ बड़े
बड़े कड़ाहों में तेल को आग से खौलाया जा रहा था तथा उनमें गोलों को पूरी तरह
से गर्म करके एक देसी बड़ी तोफ (गुलेल) के माध्यम से सेना के जवानों पर
फैंका गया था। गाँव के चारों और खुदी गहरी खाई की वजह से ब्रिटिश सेना के
वाहन तो गाँव में प्रवेश कर नहीं सकते थे तो सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने
गाँव की इदगाह के पास अपने टैंकों व वाहनों को रोक दिया और ऐलान किया कि
सभी मुसलमान अपने हथियार जमा करवा दें और शांतिपूर्वक गाँव खाली करके
पाकिस्तान चले जाएं। लेकिन मुसलमान न तो हथियार जमा जमा करवाने को राजी हुए
और न ही गाँव खाली करने को। बाद में कुछ मुसलमान गाँव खाली करने को तो
तैयार हो गए लेकिन हथियार जमा करवाने पर साफ इनकार कर दिया। हथियार जमा न
करवाने के पीछे उनका तर्क था कि यदि वे हथियार ही जमा करवा देंगे तो
पाकिस्तान जाते समय बीच रास्तेअपनी बहु-बेटियों की इज्जत कैसे बचा पाएंगे।
ब्रिटिश सेना के अफसरों ने गाँव के मुसलमानों के समक्ष बातचीत का भी
प्रस्ताव रखा। बातचीत के लिए मुसलमानों के मौजिज लोगों को बुलवाया गया।
यहाँ एक जानकारी और भी सामने आई है कि अंग्रेजों ने मुसलमानों से बातचीत के
लिए एक कमेटी भी बनाई थी। मसुदपुर गाँव का इतिहास लिखने वाले लेखक ज्ञान
चंद आर्य के मुताबिक इस वार्तालाप कमेटी में गाँव लोहारी राघो के मुसलमानों
के अलावा आस-पास के गाँवों के कुछ लोग भी शामिल थे।
इस तरह टूटी लोहारी, देखते ही देखते लग गए थे लाशों के ढ़ेर, गलियों-नालियों में बह रहा था खून
वार्तालाप
बेनतीजा रही और मुसलमानों ने गाँव खाली करने से दो टूक इंकार कर दिया।
ब्रिटिश आर्मी ने एक बार तो अपने वाहन, टैंक व मशीनगनों को मोड़कर वापिस
सिसाय गाँव की तरफ रुख कर लिया था। मुसलमानों ने सोचा कि सेना उनसे डर गई
और वापिस लौट रही है। यह खबर सुनकर गाँव के दूसरे मोर्चों पर तैनात मुसलमान
भी इदगाह वाले मोर्चे पर जुटने शुरु हो गए थे। इदगाह के सामने एक तालाब था
जिसका दायरा आज सिकुड़कर काफी कम हो गया है। ब्रिटिश सेना के कुछ टैंक
तालाब के उस पार भी थे। अचानक से अंग्रेज अफसरों ने सेना को अटैक (हमले) के
आदेश दे दिए। बताया जाता है कि यह गाँव लोहारी राघो पर 12वाँ हमला था।
अंग्रेज सेना ने इस बार मुसलमानों द्वारा लगाया मोर्चा तोड़ दिया और हजारों
जवान गाँव में घुस गए। सभी टैंकों से इदगाह की तरफ दनादन गोलियां बरसने लगी
और तड़तड़ाहट के साथ शुरू हो गया कत्ले-आम का वो खूनी खेल जिसे याद कर आज भी
पाकिस्तान में बैठे मुसलमानों व उनकी पीढियों तक की रुह कांप उठती है।
अंग्रेज सेना की गोलियों के सामने जो भी आया, बच न पाया। सेना के गाँव में
घुसने पर मुसलमानों में भगदड़ मच चुकी थी। हर कोई अपनी जान बचाने की जुगत
में था। कोई छतों के रास्ते भाग रहा था तो कोई छिपने के लिए तलाश रहा था
सुरक्षित ठिकाना। इस दौरान सबसे पहली गोली हाकम अली के छोटे भाई मुंशी की
जांघ में लगी थी जो बुरी तरह से जख्मी हो गया था। इस हमले में खुद हाकम अली
सक्का तथा उसका दूसरा भाई छोटू खान समेत सैकड़ों मुसलमान मारे गए। गाँव
लोहारी राघो की धरती खून से लाल हो चुकी थी। चहुं ओर लाशें बिछी थी।
गलियों-नालियों में हर तरफ बह रहा था तो इंसानों का खून। किसी ने पिता खोया
तो किसी ने भाई, चाचा, ताऊ तो किसी ने अपना बेटा। इस नरसंहार में सैकड़ों
मुस्लमान मारे गए। इस पूरे मंजर को अपनी आंखों से देखने वाले गाँव लोहारी
राघो छोड़कर पाकिस्तान के मुल्तान स्थित डेरा मुहाम्मदी में रहने वाले एक
वृद्ध मुहम्मद सुलेमान बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के इस हमले में सबसे
ज्यादा मौतें गाँव के दक्षिण में स्थित ईदगाह में हुई। यह सब उनकी आंखों के
सामने हुआ। उस समय उनकी उम्र महज 6-7 साल थी। अंग्रेजों के इस हमले में
गाँव लोहारी राघो के करीब 300 से ज्यादा मुसलमान मारे गए थे। गाँव मसूदपुर
निवासी ज्ञान चंद आर्य बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के इस हमले में मुसलमानों
के अलावा आस-पास के गाँवों के कुछ हिंदू लोग भी मारे गए थे। जिनमें दो लोग
तो मसूदपुर गाँव से थे जो मुसलमानों से बातचीत के लिी बनाई गई वार्तालाप
कमेटी में ही शामिल थे। इसके अलावा गाँव सिसाय से दो, हैबतपुर से एक, बयाना
खेड़ा से एक तथा गाँव थापर खेड़ा से भी एक को जान गंवानी पड़ी थी।
बरसात का फायदा उठा रातों-रात भागे थे मुसलमान, सेना ने घेर रखा था गाँव
19
अक्तूबर 1947 के दिन जब ब्रिटिश सेना ने गाँव लोहारी राघो को घेर रखा था
तो बताते हैं कि दोपहर बाद अचानक से मौसम खराब हो गया और बूंदाबांदी होने
लगी। देर शाम तक भी झड़(बरसात) ने रुकने का नाम नहीं लिया तो सड़कें कच्ची
होने की वजह से दलदल में बदल गई। अब सेना की गाड़ियां भी इस दलदल में फंस
चुकी थी और बरसात अभी भी जारी रही। रात होते-होते सेना ने भी गाँव के बाहर
दक्षिण की तरफ डेरा डाल लिया था और बरसात थमने का इंतजार किया जाने लगा।
सेना का प्लान था कि बरसात थमते ही फिर से अटैक कर गाँव खाली करवाया जाएगा।
इधर सैकड़ों लोगों की मौत से गाँव के मुसलमानों में कोहराम मचा था। भय से
कांपते मुसलमानों ने रात 10 बजे गाँव छोड़ने का फैसला लिया क्योंकि अब
उन्हें समझ आ चुका था कि ब्रिटिश सेना गाँव खाली करवाए बिना वापिस नहीं
लौटेगी। 19 अक्तूबर की रात को ही सभी मुसलमान अलग-अलग कबिले (झुंड) बनाकर
पश्चिम की तरफ पलायन कर गए। सेना के इस अटैक के बाद लोहारी के टूटने का
ढ़िंढ़ोरा पिट गया और 20 अक्तूबर से शुरु हो गया मुसलमानों के घरों में
लूटपाट का सिलसिला। क्योंकि मुसलमानों के गाँव छोड़ते ही सेना भी यहाँ से जा
चुकी थी। पहले से ही इंतजार में बैठे आस-पास के गाँवों के ग्रामीणों ने
मुसलमानों के घरों पर धावा बोल दिया और जो भी पैसा, जेवर व कीमती सामान था,
सब लूट ले गए।
बरवाला, भूना, डबवाली, फाजिल्का से मुल्तान के रास्ते बस्ती मलूक पहुंचे लोहारी राघो के मुसलमान
गाँव
लोहारी राघो को छोड़ने के उपरांत यहां के मुसलमान पैदल चलते हुए गाँव बधावड़
व ढाड होते हुए बरवाला पहुंचे। बताते हैं कि बीच रास्ते गाँव बधावड़ व ढाड
के पास भी स्थानीय ग्रामीणों द्वारा लोहारी के मुसलमानों पर हमले किए तथा
यहां 8-10 दिन रुकने के उपरांत भूना, डबवाली, फाजिल्का से होते हुए
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के जिला मुल्तान में जिला मुख्यालय से महज 35
किमी. दूर मुलतान-बहावलपुर मुख्य मार्ग पर स्थित बस्ती मलूक पहुंचे। यहाँ
हाईवे किनारे टिलों पर पाकिस्तान सरकार द्वारा बनाए कैंप में कई दिन रहने
के उपरांत पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जाकर बस गए। बस्ती मलूक से कुछ
ही दूरी पर स्थित है गाँव टिब्बा रावगढ़ जहाँ आज भी गाँव लोहारी राघो से
पलायन करके जाने वाले सबसे ज्यादा मुसलमान रह रहे हैं। बताते हैं कि गाँव
टिब्बा रावगढ़ को पाकिस्तान में लोहारी राघो वालों के गाँव के नाम से भी
जाना जाता है। 75 साल पहले लोहारी राघो से पलायन करके गए करीब 300 परिवार
आज भी टिब्बा रावगढ़ में रह रहे हैं।
नरसंहार की गवाह है सरकारी स्कूल में स्थित ईदगाह, कुछ साल पहले तक थे अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के निशान
वर्तमान
में गाँव लोहारी राघो के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में स्थित यही
वह ईदगाह है जो इस नरसंहार का सबसे बड़ा गवाह रही है। आज से करीब 20-25 साल
पहले तक भी इस ईदगाह की दीवारों पर अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के
निशान साफ दिखाई देते थे लेकिन वक्त के साथ-साथ ये दीवारें जर्जर हुई तो
मुरम्मत के साथ-साथ ऐतिहासिक खूनी यादें भी दफन हो गई। गाँव में जोहड़
किनारे जहां आज अशोक सिंदवानी का मकान है, इसके ठीक पीछे स्थित एक पुरानी
दीवार पर भी गोलियों के निशान कुछ साल पहले तक मौजूद थे। इसके अलावा भी
गाँव के अंदर कई प्राचीन दीवारों पर अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के
निशान कुछ साल पहले तक देखने को मिलते थे लेकिन अब वे नहीं हैं क्योंकि
ग्रामीणों ने उन दीवारों को ढ़हाकर नए भवनों का निर्माण कर लिया है।
जानें, आज कैसे मेवात बन चुका होता लोहारी राघो का इलाका
यहाँ यह बताना भी जरुरी है कि विभाजन के दौर में पूरे हरियाणा में लोहारी राघो ही एकमात्र ऐसा गाँव था जिसे खाली करवाने के लिए स्वंय ब्रिटिश सेना को दिल्ली से आकर मोर्चा संभालना पड़ा था। जरा कल्पना कीजिए यदि ब्रिटिश सेना उस समय मुसलमानों को न खदेड़ती तो आज यहाँ क्या होता। जिला हिसार के गाँव लोहारी राघो व मोठ समेत आस-पास के कई गाँव अब तक मुस्लिम बाहुल्य गाँव बन चुके होते। 75 साल बाद आज यह इलाका पूरी तरह से मेवात बन चुका होता और यहाँ का इतिहास, भूगोल, कल्चर, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान सब अलग होता। यहाँ रहने वाले मुसलमानों का इस इलाके को मिनी पाकिस्तान बनाने का सपना भी अब तक पूरा हो चुका होता। सरकारी कर्मचारी यहाँ नौकरी करने से कतराते। हरियाणा सरकार को मेवात की मानिंद यहाँ के लिए भी अलग से नौकरी के पद सर्जित करने पड़ते। यहाँ काम करने वाले कर्मचारियों को मेवात की मानिंद सैलरी पैकेज व सुविधाएं भी ज्यादा देनी पड़ती। पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए जो अरोड़ा, कम्बोज, खत्री व सिख समुदाय के परिवार आज इन गाँवों में आबाद हैं, वे कहीं और होते क्योंकि उस समय सरकार ने सिर्फ उन्हीं गाँवों-शहरों में विस्थापितों को मकान,खेत अलाट किए थे जो मुस्लिम बाहुल्य थे तथा मुसलमान वहाँ से छोड़कर पाकिस्तान जा चुके थे। लोहारी राघो अब तक 95 फीसद मुस्लिम गाँव बन चुका होता। क्योंकि विभाजन से पहले यहाँ केवल 25-30 फीसद हिंदू परिवार ही आबाद थे। जी हाँ! बिल्कुल ठीक पढ़ा आपने। वर्ष 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के उपरांत उपजे हालातों को यदि ब्रिटिश सेना ने उस समय नजरअंदाज कर दिया होता तो आज हरियाणा के जिला हिसार में भी एक और मेवात होता। आज यहाँ का इतिहास कुछ ओर होता तो भूगोल, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान व कल्चर कुछ ओर।
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