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ये है लोहारी राघो के इतिहास का सबसे अहम किरदार हाकम अली सक्का घोड़ी वाला जिससे खौफ खाते थे अंग्रेज व गाँव-गुवांड के लोग, इस बहादुर ने मरते दम तक कैसे की लोहारी की सुरक्षा, पढ़ें दिल दहला देने वाली दास्तान

  • जानें कौन था हाकम अली सक्का घोड़ी वाला, बहादुर या बदमाश ? 
    भाई वशीर अहमद का हमशकल था हाकम अली
    लोहारी राघो। तस्वीर में अपने परिवार के साथ दिखाई दे रहे वृद्ध अब्दुल सक्कुर हैं जो कि हाकम अली के बड़े बेटे हैं । वर्ष 1947 में जब लोहारी राघो में ब्रिटिश सेना द्वारा गोलियां चलाई गई थी, उस दिन ये लोहारी राघो में ही माौजूद थे। उस वक्त इनकी उम्र 9 वर्ष थी। इनके पिता हाकम अली तो यहीं लोहारी राघो में अंग्रेजी हमले में मारे गए थे। विभाजन उपरांत ये अपने परिवार के साथ पाकिस्तान के बहावलनगर में रह रहे हैं।

वशीर अहमद,  हाकम अली का हमशकल
घोड़ी की सवारी, एक हाथ में खूंखार भाला तो दूसरे में गंडासा। जब वह घोड़ी पर सवार होकर निकलता तो सभी भागकर घरों में दुबक जाते और दरवाजे बंद कर लेते। गलियों में एकदम सन्नाटा पसर जाता। ठीक वैसे, जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों में जब डाकू घोड़ों पर सवार होकर गाँव, बस्ती में आते थे तो लोग खौफ में दरवाजे बंद कर घरों में कैद हो जाते थे। क्या मजाल कोई घर से बाहर झांकने की भी हिम्मत कर जाए। कोई यदि गलती से भी सामने आ जाता, जिंदा न जाने पाता। चौंकिएगा मत, विभाजन से पहले ठीक ऐसा ही फिल्मी नजारा था हरियाणा के जिला हिसार की तहसील नारनौंद अतर्गत गाँव लोहारी राघो का। हम बात कर रहे हैं भारत-पाक विभाजन यानि वर्ष 1947 से पूर्व लोहारी राघो में रहने वाले एक ऐसे बहादुर शख्स की जिसने लोहारी राघो पर हुए हर हमले के दौरान न केवल यहाँ के मुसलमानों व हिंदुओं की सुरक्षा की बल्कि दुश्मनों को धूल चटाकर चारों खाने चित्त कर डाला। लोहारी राघो के इस बहादुर का नाम था हाकम अली सक्का घोड़ी वाला। इनकी बहादुरी का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि उस जमाने में जिसने भी गाँव लोहारी राघो की तरफ आंख उठाकर भी देखा, लोहारी पर चढ़ाई करने की कोशिश की, वह कभी जिंदा लौट कर वापस नहीं गया। यह बहादुर हाकम अली की दिलेरी का ही कमाल था कि आस-पास के 8-10 गाँव मिलकर भी लोहारी राघो के मुसलमानों को खदेड़ नहीं पाए। विभाजन के उपरांत करीब 25 दिन तक चली जंग में पड़ोसी गाँवों द्वारा यहाँ लगभग एक दर्जन से भी ज्यादा अटैक किए गए लेकिन लोहारी राघो को तोड़ने का हर षडयंत्र नाकाम रहा। मजबूरन ब्रिटिश सेना बुलाई गई और इस अंतिम अटैक के साथ हाकम अली की कहानी भी हमेशा के लिए खत्म हो गई। लोहारी राघो के इस बहादुर शेर की मौत के साथ ही यहाँ के मुसलमानों का हौंसला भी टूट गया। सैकड़ों मौतों से मचे कोहराम के बाद मुसलमान रातों-रात गाँव खाली कर पाकिस्तान की ओर प्रस्थान कर गए। हाकम अली सक्का बहादुर था या कुख्यात बदमाश? क्या वह लोहारी राघो का ही रहने वाला था या कहीं दूसरे गाँव से आकर यहाँ बसा? हाकम अली ने अंग्रेज अफसरों व पड़ोसी गाँवों की नाक में कैसे किया हुआ था दम ? आज पाकिस्तान में कहाँ रह रहे हैं हाकम अली के परिजन और कौन-कौन है उनके परिवार में। विस्तार से बता रहे हैं संदीप कम्बोज


शादी न होने पर मिर्चपुर से आकर लोहारी राघो में डाला डेरा

जिला हिसार के तहसील नारनौंद(उस समय हांसी) में एक प्रख्यात गाँव है मिर्चपुर। बताते हैं कि विभाजन से पूर्व इस गाँव में सबसे ज्यादा आबादी हिंदू जाटों की थी। पूरे गाँव में मुसलमानों का एक ही घर था जिसका नाम था नानगा जो कि वास्तव में बड़गुजर मुसलमान थे। नानगा अपनी पत्नी नूर भरी व चार बेटों क्रमश: हाकम अली, वशीर अहमद, छोटू खान व मुंशी के साथ यहाँ रह रहे थे। खेती व पशुपालन से ताल्लुक रखने वाले नानगा के पास भेड़-बकरियों का बहुत बड़ा रेवड़ (झुंड) था जिसे वह जींद-बरवाला मार्ग पर बाराधड़ी के पास स्थित एक विशाल तालाब के किनारे बरगद के पेड़ों के नीचे खड़ा करते थे। इन्हीं पेड़ोें के नीचे आने-जाने वाले मुसाफिर आराम करते और यहां स्थित कुंएं के पानी से प्यास बुझाते। बेटे बड़े हुए तो नानगा को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। लेकिन हिंदूओं का गाँव होने के कारण कोई भी मुसलमान इस परिवार में अपनी बेटी का रिश्ता करने को तैयार नहीं था। बच्चों की शादियां कैसे होंगी, यही चिंता नानगा को हर पल खाए जा रही थी। अंत में उसे विचार आया कि क्यों न पत्नी नूर भरी व बेटों को गाँव लोहारी राघो में भेज दिया जाए जिससे शादी वाली समस्या खत्म हो जाएगी। क्योंकि लोहारी राघो उस समय पूरे जिला हिसार में मुसलमानों का सबसे बड़ा गाँव था। यहाँ 70 फीसद से अधिक आबादी मुसलमानों की थी जबकि कुछ हिंदू परिवार आबाद थे। नूर भरी अपने चारों बेटों को लेकर लोहारी राघो आकर रहने लगी और नानगा वहीं मिर्चपुर में ही अपने भेड़ों के रेवड़ के साथ गुजर बसर करने लगा। चारों बेटे नूर भरी के पास यहाँ लोहारी राघो में रहकर ही पले बढ़े। सबसे बड़े बेटे हाकम अली की शादी गाँव लोहारी राघो में सक्का(दूसरों के घरों में पानी भरने वाले) परिवार में नूरी बीबी के साथ हो गई। इसके अलावा छोटू खान का विवाह जन्नत बीबी व वशीर अहमद का विवाह जिंदो के साथ हो गया। सबसे छोटे मुंशी का रिश्ता भी भूरी के साथ पक्का कर दिया गया था लेकिन अभी विवाह नहीं हो पाया था। हाकम अली की शादी सक्का परिवार में हो जाने से यह परिवार भी अब सक्का मुसलमानों के नाम से जाना जाने लगा। यहाँ वह अपने ससुराल में रह रहा था। हाकम अली के घर दो बेटे अफजल सक्कुर व मुमताज अली तथा तीन बेटियों क्रमश: गफुरी, सूरति व शकुरी ने जन्म लिया। बताते हैं कि हाकम अली पानी भरने के लिए एक घोड़ी लेकर आया जिससे वह घोड़ी वाले के नाम से मशहूर हो गया। हाकम अली इस घोड़ी की मदद से गाँव के कुंओं से पानी भरकर लाता और बड़े जमींदारों के घरों में डालता।


जानें लोहारी राघो में कहाँ था हाकम अली सक्का का घर

लोहारी राघो में हाकम अली सक्का का मकान कहाँ था, इसकी सटीक जानकारी नहीं मिल पाई है। ग्रामीण उजाला राम संभरवाल व छोटो देवी जांगड़ा की मानें तो हाकम अली का मकान जहाँ पंजाबी धर्मशाला के पास वाली मस्जिद के आस-पास दाएं-बाएं था। वहीं धन सिंह सैनी व बनवारी लाल सरोहा के मुताबिक हाकम अली का घर गाँव के बीचों-बीच डेरी वाले चौक के आस-पास था। वे बताते हैं कि हाकम अली के घर के साथ रोहिला समाज के परिवार आबाद थे जिनमें सादी रोहिला व रुड़ा रोहिला का नाम बताया जा रहा है। इसके अलावा कुछ बनिया परिवारों के घर भी यहीं आस-पास थे। बनवारी लाल सरोहा के अनुसार इसी डेरी वाले चौक व आस-पास की गलियों में ही हाकम अली सक्का की घोड़ी खुले में विचरण (घूमती) करती रहती थी। घोड़ी के गले में कोई लगाम नहीं डाली गई थी। वह सिर्फ और सिर्फ हाकम अली की ही भाषा समझती थी। जरुरत पड़ने पर हाकम अली की एक आवाज पर वह तुरंत भाग कर उसके पास पहुंच जाती। हाकम अली जब भी घोड़ी पर सवार होकर निकलता तो उसके एक हाथ में गंडासा तो दूसरे हाथ में खतरनाक भाला रहता था जिन्हें वह लहराते हुए चलता था। 

जब अकेले हाकम अली ने खदेड़ दिए थे दूसरे गाँवों से आए आक्रमणकारी
वैसे तो लोहारी राघो पर अटैक यानि हमलों का सिलसिला 17वीं शताब्दी में ही शुरु हो गया था। बताया जाता है कि वर्ष 1947 तक लोहारी राघो पर सैकड़ों बार हमला किया गया था। 17वीं व 18वीं शताब्दी में लोहारी राघो पर हमले ब्रिटिश सेना द्वारा गाँव पर कब्जा करने के मकसद से किए जाते रहे हैं लेकिन यहाँ के बहादुर मुसलमानों के हौंसले के आगे हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी। लोहारी राघो के मुसलमान अपनी सुरक्षा के लिए गाँव के चारों तरफ गहरी खाई(नाला) खोदकर मोर्चे लगा देते थे ताकि कोई भी बाहरी व्यक्ति गाँव के भीतर प्रवेश न कर पाए। कोई भी बाहरी व्यक्ति बिना इजाजत गाँव में घुसने का दुस्साहस करता तो मोर्चे पर तैनात मुसलमानों द्वारा उसे वहीं ढ़ेर कर दिया जाता। 19वीं शताब्दी में लोहारी राघो पर जो हमले हुए, वह आस-पास के कई गाँवों के हिंदू जाटों द्वारा किए गए थे। बताया जाता है कि 19वीं शताब्दी में ही एक बार कई गाँवों के हिंदू जाटों ने एकजुट होकर लोहारी राघो पर धावा बोल दिया। उस समय हाकम अली सक्का भी लोहारी राघो में ही मौजूद था। बताते हैं कि अकेले हाकम अली ने आक्रमणकारियों का डटकर मुकाबला किया और उन्हें खदेड़कर गाँव की सीमा से बाहर कर दिया। 


लाठी का जबरदस्त खिलाड़ी था हाकम, एक साथ सौ से भी ज्यादा दुश्मनों से लड़ने का हुनर  

लोहारी राघो के मुसलमान हाकम अली की बहादुरी देख हैरान रह गए। पूरे गाँव में हाकम अली के नाम का शोर मच चुका था। मुसलमानों की जान में जान आ चुकी थी क्योंकि इससे पहले लोहारी राघो में इतना बहादुर मुसलमान कोई नहीं था जो अकेले ही कई लोगों से मुकाबला कर सके। अब जब भी लोहारी पर हमला होता तो सबसे आगे हाकम अली की ही घोड़ी होती। मार-धाड़, खून-खराबा, लड़ना-मरना, बस रोजाना की यही दिनचर्या बन चुकी थी हाकम अली की। हाकम अली का एक और साथी था धन्नी रांगड़। बताते हैं कि ये दोनों लाठी के जबरदस्त खिलाड़ी थे। पाकिस्तान के बहावलनगर में रहने वाले हाकम अली के छोटे भाई छोटू खान के बेटे 77 वर्षीय हाजी मुहम्मद शरीफ बताते हैं कि जब भी कोई अटैक होता तो ये दोनों (हाकम अली और धन्नी रांगड़) पीठ से पीठ मिला लेते और एक साथ सौ से भी ज्यादा दुश्मनों को चित कर देते। 1947 में ब्रिटिश सेना द्वारा किए अटैक को छोड़ दें तो ये दोनों अपनी जिदंगी में कभी पराजित नहीं हुए। हाकम अली सक्का का एक नियम था कि वह रोजाना दिन में एक से दो बार गाँव के बाहर 3-4 किमी तक का चक्कर लगाता था। इस दौरान जो भी कोई बाहरी व्यक्ति उसके सामने आता, उसकी जान जाना लाजिमी था। रोजाना एक-दो को मौत के घाट उतारना उसके लिए मामूली बात थी। कई अंग्रेज सिपाहियों, ब्रिटिश पुलिस व सेना अफसरों, प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारियों सहित कई गाँवों के अनेक लोगों को मौत के घाट उतार चुका था लोहारी राघो का यह कुख्यात। बताते हैं कि इसी वजह से उसकी सारी जिंदगी रेल और जेल में ही कटी। गाँव-गुवांड में किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उसके खिलाफ गवाही दे सके। इसी का फायदा उठाकर वह हर बार बरी हो जाता और फिर से कत्ल कर दोबारा जेल पहुंच जाता। हाकम अली सक्का उस समय का वह गब्बर सिंह था जिसके नाम से ही हर कोई सहम उठता था। इनकी बहादुरी के चर्चे दूर-दराज तक थे तथा ब्रिटिश सेना व पुलिस के अफसर भी हाकम अली का नाम सुनते ही कांप उठते थे। 

कोर्ट ने सुनाई थी चार साल की जेल, बहादुरी से कायल हुए अंग्रेज जेलर ने कर दिया जेल से बाहर

हाजी मुहम्मद शरीफ, हाकम अली का भतीजा
हाकम अली के भाई छोटू खान के बेटे हाजी मुहम्मद शरीफ बताते हैं कि हाकम अली की ज्यादातर जिंदगी रेल व जेल में कटी। क्योंकि हाकम ने अनेक अंग्रेज अफसरोंं, पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया था। ज्यादातर मामलों में हाकम अली बाइज्जत बरी होकर बाहर आया क्योंकि उस जमाने में कोई भी उसके खिलाफ गवाही देने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। वे बताते हैं कि हाकम अली के सभी केस उनके नाना शहजाद लड़ते थे जो कि कानून के जानकार होने के साथ-साथ बहुत तेज तर्रार थे। इसी तरह एक बार हाकम अली को ब्रिटिश पुलिस ने पकड़ लिया व कोर्ट ने उन्हें 4 साल कैद की सजा सुनाई। हाकम अली को रियासत जींद की जेल में डाल दिया गया। बताते हैं कि जेल के साथ भयावह बीहड़ (जंगल) था। एक बार की बात है। बीहड़ से रोजाना किसी खतरनाक जानवर के चीखने की भयावह आवाज आने लगी। जेल के कर्मचारी व सभी कैदी डर के मारे थर्र-थर्र कांपने लगे कि कहीं यह जंगली जानवर जेल में घुस गया तो उन्हें मारकर खा जाएगा। एक रात जब उस जानवर के चीखने की आवाज आई तो हाकम अली भागकर बीहड़ में गया और वहाँ एक बड़ी जाल का पेड़ था। हाकम अली ने देखा की उस जाल पर एक ब हुत बड़ा अझÞदहा( अजगर) है। हाकम अली बहादुर तो था ही। उसने अजगर को पकड़ा और खींचकर जेल के मैदान में ले आया और लाठी-डंडों से पीट-पीट कर उसे मार डाला। इस घटना को जेल के सभी कर्मचारियों व कैदियों ने अपनी आंखों से देखा था। सुबह होते ही जेल में नुमाइश लग गई। हाकम अली की बहादुरी देख सभी अधिकारी, कर्मचारी, कैदी व जेलर सब दंग दंग रह गए। इस घटना से प्रसन्न होकर जेलर ने हाकम अली को जेल से रिहा कर दिया। रिहाई के पीछे जेलर ने जो हवाला दिया था, उसमें बताया गया था कि हाकम अली ने वो हत्या जान बूझकर नहीं की थी। वो तो बलवा यानि दंगा हुआ था, दंगे में गोली चली थी ना। बलवा तो पि ऊर बलवा है। तो हाकम अली कई केसों में इसी तरह से बरी होता रहा।

लोहारी राघो के मुसलमानों के हर घर में थे खतरनाक हथियार

यहाँ बता दें कि लोहारी राघो के मुसलमान भी अपने पास सुरक्षा के मद्देनजर खतरनाक हथियार रखते थे। यहाँ के लोहार मुसलमानों का मुख्य धंधा ही हथियार बनाना था। शायद ही मुसलमानों का कोई घर ऐसा हो जिसमें हथियार न हों। हथियार रखने के पीछे मुसलमानोें का तर्क था कि लोहारी राघो पर आस-पास के कई हिंदू गाँव एकजुट होकर कभी भी हमला कर देते थे, इसलिए वे अपनी आत्मरक्षा के लिए हथियार रखते थे। वहीं आस-पास के गाँवों केहिंदुओं की मानें तो लोहारी राघो के मुसलमानों में ज्यादातर चोर, लुटेरे व बदमाश थे जो आस-पास के गाँवों में जाकर लूटपाट किया करते थे। इसी वजह से वे मुसलमानों को यहाँ से भगाना चाहते थे। यहाँ बताना जरुरी है कि लोहारी राघो के मुसलमानों व आस-पास के गाँवों कई गाँवों के हिंदू जाटों के बीच सांप व नेवले वाला बैर था। एक डाटा गाँव ऐसा बताया जा रहा है जहाँ के जाटों से मुसलमानों का तगड़ा भाईचारा था तथा डाटा गाँव के जाटों ने अक्तूबर 1947 तक कभी भी लोहारी राघो पर कोई अटैक नहीं किया और न ही हमला करने वाले दूसरे गाँवों के जाटों का कभी साथ दिया। हाँ, मुसलमानों के यहाँ से चले जाने के बाद अगले दो-तीन दिन तक लोहारी राघो में जो लूटपपाट हुई थी, उसमें जरुर गांव डाटा के जाटों का नाम सामने आया है। लोहारी राघो में आज भी कुछ वो लोग जीवित हैं जो इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी हैं तथा जिनकी उम्र अब 100 साल  से ज्यादा या उसके इर्द-गिर्द हो चुकी है। 98 वर्षीय छोटो देवी जांगड़ा चीख-चीख कर कह रही हैं कि मुसलमानों के जाने के बाद लोहारी राघो के घरों में जमकर लूटपाट हुई थी। छतों की शहतीर के अलावा कुछ नहीं बचा था उस वक्त घरों में। वे बताती हैं कि उनके घर से लूटा गया सामान भी गाँव डाटा में बरामद हुआ था। वे दावे से कहती हैं कि उनके घर से लूटे गए सामान की बोली डाटा गाँव में लगाई गई थी। इस बात मेें सच्चाई है या नहीं लेकिन सुनने में आया है कि लोहारी राघो पर अटैक करने के लिए आस-पास के जाटों के गाँवों के साथ-साथ फरमाना गाँव तक के हिंदू एकजुट होते थे। लोहारी पर चढ़ाई करने से पहले सभी गाँव से बाहर एक जगह पर एकजुट होते व फिर मिलकर अटैक करते।  

कई गाँवों ने एकजुट होकर लोहारी राघो पर किए दर्जनभर अटैक, लूटपाट व बहन-बेटियों के साथ अभद्रता का था इरादा

14 अगस्त 1947 को भारत के विभाजन के उपरांत दुनिया के नक्शे पर एक नया मुल्क अस्तित्व में आया पाकिस्तान। हुक्मरानों का फरमान था कि सभी मुसलमान पाकिस्तान में रहेंगे और हिंदू भारत में। बंटवारे के इस फैसले के बाद भारत में रहने वाले मुसलमान पाकिस्तान में जाने लगे तो पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू भारत आने लगे। इस दौरान लोहारी राघो के मुसलमानों ने सरकार के फैसले का विरोध करते हुए तय कर लिया कि वे किसी भी कीमत पर पाकिस्तान नहीं जाएंगे। वे यहीं (लोहारी राघो व आस-पास के गाँवों में) मिनी पाकिस्तान बना देंगे। आस-पास के कई गाँवों के मुसलमानों ने लोहारी राघो में डेरा डाल लिया। पूर्व की भांति गाँव के चारोें तरफ खाई(गहरा नाला) खोद दी गई तथा कई मोर्चे लगा दिए गए ताकि कोई भी बाहरी गाँव में प्रवेश न कर सके। करीब दो माह का वक्त बीत गया। बताया जाता है कि इन दो माह के अंतराल (15 अगस्त से 15 अक्तूबर1947 तक) आस-पास के ग्रामीणों द्वारा लगातार 25 दिन तक गाँव लोहारी राघो पर एक दर्जन से भी ज्यादा बार अटैक किए गए थे लेकिन यहां के मुसलमानों को खदेड़ने यानि लोहारी को तोड़ने में नाकाम रहे। लोहारी राघो के मुसलमानों की तरफ से विद्रोह की कमान हाकम अली सक्का के ही हाथ थी। यह भी कहा जा सकता है कि सभी मुसलमान हाकम अली के दम पर ही यहाँ रुके हुए थे। इस दौरान हाकम अली व स्थानीय मुसलमानों ने आस-पास के गाँवों के ग्रामीणों द्वारा किए हर हमले का करारा जवाब दिया। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी जो आज भी जीवित हैं तथा पाकिस्तान तथा यहाँ गाँव लोहारी राघो में रह रहे हैं, उनका मानना है कि आस-पास के गाँवों के हिंदू लोहारी राघो पर बार-बार लूटपाट के इरादे से आक्रमण कर रहे थे ताकि यहाँ से मुसलमान भागेें तथा वे उनके घरों, पशुओं व संपत्ति को लूटें। कुछ उपद्रवियों का मकसद मुसलमानों की बहन-बेटियों को उठाकर उनके संग गलत हरकत करने का भी था लेकिन वे अंत तक नाकाम रहे। यू- ट्यूब पर पोस्ट किए गए एक वीडियो में मुहम्मद सुलेमान बताते हैं कि दूसरे गाँवों से आकर लोहारी राघो पर अटैक करने वालों का मकसद उनकी बहन-बेटियों की इज्जतें बर्बाद लूटना भी था। कोई लूटपाट के इरादे से आ रहा था तो कोई हमारी बहन-बेटियों को उठाने के मकसद से।

हाकम अली सक्का ने कर दी थी सिसाय गाँव के रघुनाथ सिंह की हत्या

15 अक्तूबर 1947 की बात है। दोपहर का समय था। सिसाय गाँव के चौधरी लाजपत राय साहब के बेटे रघुनाथ सिंह अपने गाँव के ही कुछ साथियों के साथ गाँव लोहारी राघो की तरफ आ रहे थे। पेशे से वकील ये वही लाजपत राय साहब हैं जो उन दिनों लाहौर हाईकोर्ट में वकालत करते थे तथा जिस दिन भगत सिंह द्वारा असेंबली में बम फैंका गया था, उस दिन वहाँ मौजूद थे। बताते हैं कि जैसे ही रघुनाथ सिंह गाँव के दक्षिण दिशा में इदगाह(वर्तमान में राजकीय वरिष्ष्ठ माध्यमिक विद्यालय के भीतरी भाग में स्थित) से करीब 300-400 मीटर की दूरी पर स्थित ड्रेन के पास पहुंचे तो अचानक सामने से गाँव के कुछ रांगड़ मुसलमान आ गए और उन्हें घेर लिया। मुसलमानोें को लगा कि वे उनके घरों में लूटपाट करने व उनकी बहू-बेटियों से बदनियति के इरादे से गाँव की ओर बढ़ रहे हैं क्योंकि राय साहब के बेटे रघुनाथ के पास उस समय बंदूक भी थी। भीड़ में से किसी ने रघुनाथ सिंह के कमर पर बंधी बंदूक की गोलियों वाली बैल्ट उतार ली। इतने में पीछे से घोड़ी पर सवार हाकम अली सक्का भी आ पहुंचा। हाकम अली को देख भगदड़ मच गई तथा सभी मुसलमान भी भाग गए। रघुनाथ सिंह समेत सभी को मजबूरन बाजरे के खेत में छिपना पड़ा क्योंकि उनकी गोलियों वाली बैल्ट को मुसलमानों ने छीन लिया था। चहुं ओर एकदम से सन्नाटा पसर चुका था। हाकम अली सक्का की घोड़ी सिसाय रोड पर ड्रेन से काफी दूर तक जाकर वापिस गाँव की तरफ लौट पड़ी थी। इधर रघुनाथ सिंह बाजरे के खेत में छिपे थे। सूरज की भारी तपिश व गर्मी के कारण वे पसीने से तर-बतर हो चुके थे। चहुंओर पसरे सन्नाटे से उन्हें लगा कि अब सब मुसलमान चले गए हैं। जल्दी से बाहर निकलकर वापस सिसाय लौट जाना चाहिए। बताया जाता है कि सड़क पर कोई है या नहीं, यह देखने के लिए जब रघुनाथ सिंह बाजरे के खेत में पक्षिओं को उड़ाने के लिए बने जोंडे पर चढ़े तो इतने में हाकम अली सक्का दोबारा से वहाँ आ पहुंचा। इस बार हाकम अली ने जोंडे पर चढ़े रघुनाथ सिंह को देख लिया तथा भाला घोंप-घोंप कर बुरी तरह से उनकी हत्या कर दी। 

हाकम अली ने देसी तोफ से ब्रिटिश सेना पर बरसाए थे गोले
रघुनाथ की मौत के बाद ब्रिटिश सेना ने मोर्चा संभाला तथा लोहारी राघो को तोड़ने (खाली करवाने) का पूरा एक्शन प्लान बनाया गया। गांव पर चढ़ाई करने के लिए दिल्ली से टैंक व मशीनगनें मंगवाई गई जिन्हें गाँव में आते-आते तीन दिन लग गए। 19 अक्तूबर 1947 को दोपहर करीब 12 बजे दिल्ली से आए टैंक व मशीनगनें लोहारी राघो के दक्षिण दिशा में स्थित सिसाय की सड़क पर पहुंच चुकी थी। यहाँ बता दें कि उस समय हांसी-सिसाय सड़क पूरी तरह से कच्ची थी।सेना के वाहनों व टैंकों को रोकने के लिए मुसलमानों द्वारा लोहारी राघो के चारों तरफ गहरी खाई(नाला) खोदकर मोर्चे लगाए गए थे। सबसे बड़ा मोर्चा दक्षिण दिशा में स्थित इदगाह के पास लगाया गया था और सबसे ज्यादा मुसलमान भी यहीं जुटे थे क्योंकि अंगे्रज सेना यहीं से अटैक करने की तैयारी में थी। हाकम अली सक्का अब भी बाज नहीं आया और उसने लोहार मुसलमानों द्वारा बनाई एक देसी तोफ से सेना पर गोले बरसाने शुरू कर दिए जिसमें दो जवान मारे गए तथा कई बुरी तरह से जख्मी हो गए। बताया जाता है कि यह देसी तोफ जहाँ आज अनाज मंडी है, उसके पास स्थित एक पुराने पीपल के पेड़ के पास बनाई गई थी जिसे आजादी के बाद भी कई सालों तक गाँव के कई बुजुर्गों ने अपनी आंखों से देखा है। यहाँ बड़े बड़े कड़ाहों में तेल को आग से खौलाया जा रहा था तथा उनमें गोलों को पूरी तरह से गर्म करके एक देसी बड़ी तोफ (गुलेल) के माध्यम से सेना के जवानों पर फैंका गया था। गाँव के चारों और खुदी गहरी खाई की वजह से ब्रिटिश सेना के वाहन तो गाँव में प्रवेश कर नहीं सकते थे तो सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने गाँव की इदगाह के पास अपने टैंकों व वाहनों को रोक दिया और ऐलान किया कि सभी मुसलमान अपने हथियार जमा करवा दें और शांतिपूर्वक गाँव खाली करके पाकिस्तान चले जाएं। लेकिन मुसलमान न तो हथियार जमा जमा करवाने को राजी हुए और न ही गाँव खाली करने को। बाद में कुछ मुसलमान गाँव खाली करने को तो तैयार हो गए लेकिन हथियार जमा करवाने पर साफ इनकार कर दिया। हथियार जमा न करवाने के पीछे उनका तर्क था कि यदि वे हथियार ही जमा करवा देंगे तो पाकिस्तान जाते समय बीच रास्ते अपनी बहु-बेटियों की इज्जत कैसे बचा पाएंगे। ब्रिटिश सेना के अफसरों ने गाँव के मुसलमानों के समक्ष बातचीत का भी प्रस्ताव रखा। बातचीत के लिए मुसलमानों के मौजिज लोगों को बुलवाया गया। यहाँ एक जानकारी और भी सामने आई है कि अंग्रेजों ने मुसलमानों से बातचीत के लिए एक कमेटी भी बनाई थी। मसुदपुर गाँव का इतिहास लिखने वाले लेखक ज्ञान चंद आर्य के मुताबिक इस वातार्लाप कमेटी में गाँव लोहारी राघो के मुसलमानों के अलावा आस-पास के गाँवों के कुछ लोग भी शामिल थे।   

हाकम अली के सबसे छोटे भाई मुंशी को लगी थी पहली गोली, हाकम, छोटू खान समेत मारे गए सैकड़ों मुसलमान

वातार्लाप बेनतीजा रही और मुसलमानों ने गाँव खाली करने व हथियार जमा जमा करवाने से दो टूक इंकार कर दिया। ब्रिटिश आर्मी ने एक बार तो अपने वाहन, टैंक व मशीनगनों को मोड़कर वापिस सिसाय गाँव की तरफ रुख कर लिया था। मुसलमानों ने सोचा कि सेना उनसे डर गई और वापिस लौट रही है। यह खबर सुनकर गाँव के दूसरे मोर्चों पर तैनात मुसलमान भी इदगाह वाले मोर्चे पर जुटने शुरू हो गए थे। इदगाह के सामने एक तालाब था जिसका दायरा आज सिकुड़कर काफी कम हो गया है। ब्रिटिश सेना के कुछ टैंक तालाब के उस पार भी थे। अचानक से अंग्रेज अफसरों ने सेना को अटैक (हमले) के आदेश दे दिए। बताया जाता है कि यह गाँव लोहारी राघो पर 12वाँ हमला था। अंग्रेज सेना ने इस बार मुसलमानों द्वारा लगाया मोर्चा तोड़ दिया और हजारों जवान गाँव में घुस गए। सभी टैंकों से इदगाह की तरफ दनादन गोलियां बरसने लगी और तड़तड़ाहट के साथ शुरू हो गया कत्ले-आम का वो खूनी खेल जिसे याद कर आज भी पाकिस्तान में बैठे मुसलमानों व उनकी पीढियों तक की रुह कांप उठती है। अंग्रेज सेना की गोलियों के सामने जो भी आया, बच न पाया। सेना के गाँव में घुसने पर मुसलमानों में भगदड़ मच चुकी थी। हर कोई अपनी जान बचाने की जुगत में था। कोई छतों के रास्ते भाग रहा था तो कोई छिपने के लिए तलाश रहा था सुरक्षित ठिकाना। इस दौरान सबसे पहली गोली हाकम अली के छोटे भाई मुंशी की जांघ में लगी थी जो बुरी तरह से जख्मी हो गया था। इस हमले में खुद हाकम अली सक्का तथा उसका दूसरा भाई छोटू खान समेत सैकड़ों मुसलमान मारे गए। गाँव लोहारी राघो की धरती खून से लाल हो चुकी थी। चहुं ओर लाशें  बिछी थी। गलियों-नालियों में हर तरफ बह रहा था तो इंसानों का खून। किसी ने पिता खोया तो किसी ने भाई, चाचा, ताऊ तो किसी ने अपना बेटा। बताया जाता है कि इस नरसंहार में सैकड़ों मुस्लमान मारे गए। इस गदर में मारे गए मुसलमानों की वास्तविक संख्या का तो पता नहीं चल पाया है लेकिन इस गदर को अपनी आंखों से देखने वाले व इस घटना से संबंध रखने वाले हिंदू व मुसलमानों के अलग-अलग तर्क हैं। गाँव लोहारी राघो निवासी 102 वर्षीय बनारसी दास सरोहा की मानें तो ब्रिटिश सेना के इस हमले में एक हजार से ज्यादा मुसलमानों की जान गई थी। सिसाय निवासी धर्मपाल मलिक के मुताबिक इस हमले में करीब 500-600 लोगों की मौत हुई थी। इस पूरे मंजर को अपनी आंखों से देखने वाले गाँव लोहारी राघो छोड़कर पाकिस्तान के मुल्तान स्थित डेरा मुहाम्मदी में रहने वाले एक वृद्ध मुहम्मद सुलेमान बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के इस हमले में सबसे ज्यादा मौतें गाँव के दक्षिण में स्थित ईदगाह में हुई। यह सब उनकी आंखों के सामने हुआ। उस समय उनकी उम्र  22 साल थी। अंग्रेजों के इस हमले में गाँव लोहारी राघो के करीब 500 से ज्यादा मुसलमान मारे गए थे। गाँव मसूदपुर निवासी ज्ञान चंद आर्य बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के इस हमले में मुसलमानों के अलावा आस-पास के गाँवों के कुछ हिंदू लोग भी मारे गए थे। जिनमें दो लोग तो मसूदपुर गाँव से थे जो मुसलमानों से बातचीत के लिए बनाई गई वातार्लाप कमेटी में ही शामिल थे। इसके अलावा इस हमले में गाँव सिसाय से दो, हैबतपुर से एक, बयाना खेड़ा से एक तथा गाँव थापर खेड़ा से भी एक व्यक्ति की जान गई थी।  

गीगो बनिया के नोहरे में हुई थी मुसलमानों की अंतिम मिटिंग, यहीं लिया था गाँव छोड़ने का फैसला

19 अक्तूबर 1947 के दिन जब ब्रिटिश सेना ने गाँव लोहारी राघो को घेर रखा था तो बताते हैं कि दोपहर बाद अचानक से मौसम खराब हो गया और बूंदाबांदी होने लगी। देर शाम तक भी झड़ (बरसात) ने रुकने का नाम नहीं लिया तो सड़कें कच्ची होने की वजह से दलदल में बदल गई। अब सेना की गाड़ियां भी इस दलदल में फंस चुकी थी और बरसात अभी भी जारी रही। रात होते-होते सेना ने भी गाँव के बाहर दक्षिण की तरफ डेरा डाल लिया था और बरसात थमने का इंतजार किया जाने लगा। सेना का प्लान था कि बरसात थमते ही फिर से अटैक कर गाँव खाली करवाया जाएगा। इधर सैकड़ों लोगों की मौत से गाँव के मुसलमानों में कोहराम मचा था। भय से कांपते मुसलमानों ने भरी बरसात के बीच रात 10 बजे गाँव में गीगो बनिया की हवेली में बने नोहरे में मीटिंग बुलाई तथा गाँव छोड़ने का फैसला लिया क्योंकि अब उन्हें समझ आ चुका था कि ब्रिटिश सेना गाँव खाली करवाए बिना वापिस नहीं लौटेगी। 19 अक्तूबर की रात को ही वे अलग-अलग कबिले (झुंड) बनाकर पश्चिम दिशा में गाँव डाटा की तरफ पलायन कर गए। ब्रिटिश सेना के हमले में मारे गए मृतक मुसलमानों के शवों को दफनाने के संबंध में 92 वर्षीय धन सिंह सैनी बताते हैं कि मृतक शवों को सेना, पुलिस के जवानों तथा लोहारी के स्थानीय हिंदुओं ने दफनाया था।

हाकम अली के बड़े बेटे अब्दुल सक्कुर अपने चाचा वशीर अहमद की तस्वीर दिखाते हुए। बता दें कि वशीर अहमद हाकम अली का हमशकल था और चारों भाईयों में से अकेला जिंदा बचकर पाकिस्तान लौटा था। बाकि तीनों भाईयों की यहाँ लोहारी राघो में अंग्रेजों के हमले में मौत हो गई थी
 
हाकम अली के परिवार के ये परिजन जिदां लौटे थे पाकिस्तान, जानें आज कहाँ रहता है हाकम अली का परिवार

अब्दुल सक्कुर, हाकम अली के बड़े बेटे

अक्तूबर 1947 में ब्रिटिश सेना के अटैक में हाकम अली सक्का तथा उसके भाई छोटू खान की मौत हो गई थी। सबसे छोटे भाई मुंशी जिसे सबसे पहली गोली लगी थी, उसका आज तक कोई पता नहीं चल पाया है। परिजनों ने उसे अंतिम बार गीगो बनिया के नोहरे में घायलावस्था में जरुर देखा था लेकिन उसके बाद वह जीवित है या मृत। वह पाकिस्तान गया या भारत में ही रहा। इस संबंध में न ही तो परिजनों से कोई जानकारी मिल पाई है और न ही यहाँ लोहारी राघो में रहने वाले हिंदुओं से। इस हमले में हाकम अली के भाईयों में से इनका एक हमशकल भाई वशीर अहमद ही जीवित बच पाया था। इसके अलावा हाकम अली की पत्नी नूरी बीबी, बेटे अफजल सक्कुर व मुमताज अली तथा तीन बेटियां क्रमश: गफुरी, सूरति व शकुरी सभी जीवित बच गए थे। क्योंकि जिस समय यह घटना हुई, उस समय हाकम अली की पत्नी नूरी बीबी, बेटे अफजल सक्कुर व मुमताज अली तथा एक बेटी घर की छत पर ही थे जबकि हाकम अली की दो बेटियां अपने ससुराल में थी। इसके अलावा पाकिस्तान जीवित लौटने वालों में मृतक छोटू खान की पत्नी जन्नत बीबी, छोटू खान के बेटे हाजी मुहम्मद शरीफ(उम्र दो साल उस समय) भाई वशीर अहमद, उसकी पत्नी जिंदो आदि थे। पिता नानगा का कोई पता नहीं चल पाया है क्योंकि इस अटैक के समय में वे मिर्चपुर में ही थे। वे पाकिस्तान लौटे भी या नहीं, इसकी भी कोई जानकारी नहीं है। पाकिस्तान में जाने के उपरांत हाकम अली की पत्नी नूरी बीबी तथा मुंशी की पत्नी भूरी का विवाह भी हाकम के भाई वशीर अहमद से कर दिया गया था। भूरी ने भी दो बेटों को जन्म दिया। आज पाकिस्तान में हाकम अली के दो बेटे व बेटियां, वशीर अहमद के 5 बेटे तथा 2 बेटियां, छोटू खान के बेटे हाजी मोहम्मद शरीफ अपने भरे-पुरे परिवारों सहित आज भी पाकिस्तान के बहावलनगर इलाके में रह रहे हैं। हाकम अली की पत्नी नूरी बीबी का 6 अगस्त 2003 को 115 साल की उम्र में निधन हो गया।  

...जैसा कि हाकम अली के भाई छोटू खान के बेटे हाजी मोहम्मद शरीफ के बेटे मोहम्मद दीन ने हमें बताया। 

पाकिस्तान के बहावलनगर में स्थित कब्रिस्तान में यह कब्र है हाकम अली की पत्नी नूरी बीबी की जिनका 6 अगस्त 2003 को निधन हो गया था।

  आईए जानते हैं आखिर कौन हैं ये ‘सक्का मुसलमान’ और भारत में कैसे हुआ इनका आगमन

लोहारी राघो के बहादुर हाकम अली सक्का के बारे में जानने के बाद आपके मन में एक सवाल जरुर आया होगा कि आखिर ये सक्का होते क्या हैं? तो इस लेख में हम आपको मुसलमानों की जाति सक्का यानि भिश्ती के बारे में विस्तार से बताने जा रहे हैं। भारतवर्ष में सक़्का मुसलमानों की एक जाति है जो मुगल सल्तनत के दौरान सुल्तानों के साथ हिंदुस्तान में उनके साथ आई थी। कुछ सक्के अब अब्बासी टाइटिल तो कुछ किसी ओर टाइटिल का इस्तेमाल करने लगे हैं। मुगलिया दौर में वे अंग्रेजी शासनकाल के दौरान शहरों में गलियों और नालियों की धुलाई के लिए सरकारी भिश्ती यानि सक्के रखे जाते थे जो उस वक़्त के कामगारों के हाथों सड़कों पर झाड़ू लग जाने के बाद नालियों को और जरूरत पड़ने पर सड़कों को कंधों पर टंगी मशक से धोते फिरते थे। शहर-देहातों में शादी-ब्याह या अन्य मौकों पर सक्के ही पानी भरते थे जिन्हें भिश्ती भी कहा जाता था। भिश्ती अपने कंधों पर मशक लिए रहते। मशक आमतौर पर बकरी के चमड़े की हुआ करती थी। एक मशक में पच्चीस से तीस लीटर तक पानी आ जाता था। पीने के पानी की मशक अलग और नहाने-धोने के पानी की मशक अलग रहती थी। सक्के का मुख्य काम होता था कुएं से पानी खींचकर मशक द्वारा पीने के बर्तनों में पीने का पानी भरना और तांबे-पीतल-मिट्टी के हौजों में नहाने-धोने का पानी भरना । सक्के अपनी मशक में पानी भरकर नालियों की धुलाई भी किया करते थे। गर्मियों में मिट्टी पर पानी छिड़ककर जमीन को ठंडा करना भी सक्कों का काम था। मजारों-दरगाहों पर भी सक्के देखे जाते थे। कभी-कभी तो सक्के राब या शीरा मशक भरते थे जिसे शर्बत कहा जाता था।10 पैसे का एक मिट्टी का प्याला भर देते थे। भिश्ती (सक्के) हर काल में लोगों को राहत देने और मदद पहुंचाने वाली बिरादरी मानी जाती है। ब्रिटिश शासनकाल में भी भिश्तियों की काफी मांग हुआ करती थी। आमतौर पर बड़ी इमारतों में ऊपरी मंजिलों पर रहने वाले संभ्रांत व्यक्तियों या ब्रिटिश अफसरों के घरों में पानी पहुंचाने का काम यही सक्के किया करते थे। भिश्ती ब्रिटिश काल में सरकारी कर्मचारी हुआ करते थे। ब्रिटिश काल में हर उस इलाके में जहां अंग्रेज अधिकारी रहा करते थे हिंदुस्तानियो की एंट्री नहीं होती थी । ब्रिटिश अफसरों की कालोनियों में सिर्फवही हिंदुस्तानी जाते थे जो अंग्रेजों के बंगलों में मुलाजमत किया करते थे। ब्रिटिश अफसरों के मुलाजिÞमो में वो भिश्ती (सक्के) भी शामिल थे जो शाम को पानी का छिड़काव कर अंग्रेजों के घरों को ठंडा बना दिया करते थे। अंग्रेज सक्कों को अच्छी खासी मुलाजमत भी दिया करते थे और सक्कों को पानी पिलाने के बदले सम्मान भी दिया करते थे। उस दौर में सक्के पूरे उत्तर भारत में पाए जाते थे। लेकिन उत्तर प्रदेश के अलीगढ़, बिजनौर, मेरठ के दोआब जिलों में इनकी संख्या आज भी बहुतायत है। राजा-महाराजाओं के दौर की बात है। जब भिश्ती कमर पर मश्क ताने लोगों को पानी पिलाते थे, नहरों-कुओं से पानी ढोते थे। क्योंकि कुंएं का पानी मीठा और साफ होता था। वह पानी पीकर सब खुश हो जाते थे। बताते हैं कि पानी की कद्र भी उस दौर में पता चलती थी। सुराही और घड़े में भरे पानी का मजा ही कुछ और हुआ करता था। समय का चक्र बदला और सक्का और मशक समय की गहराइयों में गुम होते गये। आज की युवा पीढ़ी शायद मशक वाले सक्के को जानती भी नहीं होगी। उसके लिए यह यकीन करना मुश्किल होगा कि समाज में कोई ऐसा भी समय रहा होगा जब सक्के चमड़े के थैले में पानी का परिवहन करते थे। सक्के चौराहों पर पानी भी पिलाते थे। शादी-ब्याह में पानी लाने की जिम्मेदारी उसी की होती थी। मध्यकाल में सैनिकों को पानी पिलाने का काम भी सक्के ही किया करते थे। सक्का समाज की आज उत्तर प्रदेश में करोड़ों की  आबादी है। ऐतिहासिक अभिलेखो के अनुसार भारत में सक्कों यानि भिश्तियों का आगमन मुगल सेनाओं से साथ हुआ था और वहीं से ये पूरे भारत में फैल गए। मगर आज 21वीं सदी है। अब इन सक्कों की कोई जरुरत नहीं रह गई है क्योंकि अब इनकी जगह आरओ वाटर, फ्रिज की ठंडक और बोतलबंद पानी ने ले ली है। 


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