1947 में ब्रिटिश सेना ना संभालती मोर्चा तो हरियाणा में होता एक और मेवात, पढ़ें बंटवारे की खौफनाक दास्तान
- लोहारी राघो, मोठ व आस-पास का इलाका आज बन चुका होता मिनी पाकिस्तान
- ब्रिटिश सेना द्वारा किए 12वें हमले में गई थी सैकड़ों मुसलमानों की जान तो रातों-रात गाँव छोड़कर भागे थे पाकिस्तान
- विभाजन के दो माह बाद भी गाँव से पलायन करने को तैयार नहीं थे मुसलमान
- आस-पास के कई गाँवों के मुसलमानों ने लोहारी राघो में एकजुट होकर लगा लिए थे मोर्चे
- गाँव खाली करवाने को पड़ोसी गाँवों के ग्रामीणों ने किए थे दर्जनभर अटैक
विभाजन
या बंटवारा किसी देश, भूमि या सीमा का नहीं होता। विभाजन तो लोगों की
जिंदगी, भावनाओं का हो जाता है जो इतने गहरे जख्म दे जाता है कि आने वाली
कई नस्लों की जिंदगी भी उन खौफनाक पलों को याद कर सिहर उठती है। आज हम आपको
75 साल पुरानी भारत विभाजन की एक ऐसी ही अनसुनी रुह कंपा देने वाली
दास्तान बताने जा रहे हैं जिस पर आज तक न ही तो किसी भारतीय इतिहासकार की
नजर गई और न ही फिल्मकार की। यह कहानी हैअपने पूर्वजों की यादों और वतन की
मिट्टी से लिपटकर रहने की चाहत रखने वाले उन मुसलमानों की जो विभाजन के बाद
भी पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे। बस इसी चाहत में हुक्मरानों द्वारा किए
विभाजन के फैसले को दरकिनार कर सेना से भिड़ गए। हम बात कर रहे हैं हरियाणा
के जिला हिसार में तहसील नारनौंद स्थित गाँव लोहारी राघो की जहां आज से 75
साल पहले आज ही के दिन 19 अक्तूबर 1947 को बंटवारे का वो खूनी अध्याय लिखा गया जिसे आज तक इतिहास के किसी भी
पन्ने में जगह नहीं मिल पाई। मुसलमानों का सबसे बड़ा गढ़ माने जाने वाले
गाँव लोहारी राघो से मुसलमानों को खदेड़ने के लिए ब्रिटिश सेना द्वारा जो
कत्ले आम किया गया, उसे याद कर आज भी रुह कांप उठती है।
14 अगस्त 1947
का वह मनहूस दिन जब सियासतदानों की गंदी व खुदगर्ज राजनीति की बदौलत धर्म
और मजहब के नाम पर भारत का विभाजन कर दिया गया। बंटवारे के इस काले अध्याय
का हर पन्ना मनुष्यता के खून के छींटों से भरा है। धर्म के आधार पर
हिन्दुओं के लिए भारत तो मुस्लमानों के लिए अलग मुल्क बनाया गया पाकिस्तान।
तय हुआ कि सभी हिन्दु भारत में रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में। 15 अगस्त
1947 को आजादी के तुरंत बाद ही दोनों मुल्कों में पलायन शुरू हो गया।
पाकिस्तान में रहने वाले हिंदु व सिक्ख भारत आ रहे थे तो भारत में रहने
वाले मुसलमान पाकिस्तान में जाने लगे। लेकिन हरियाणा के जिला हिसार के
तहसील हांसी(उस समय)स्थित मुस्लिम बाहुल्य गाँव लोहारी राघो के मुसलमानों
ने पाकिस्तान जाने से साफ इन्कार कर दिया और दो टूक कहा कि वे किसी कीमत पर
अपनी जमीन को छोड़कर नहीं जाएंगे, वे यहीं पर मिनी पाकिस्तान बना देंगे
चाहे अंजाम कुछ भी हो। लोहारी राघो के मुसलमानों द्वारा किए इस विद्रोही
ऐलान के बाद आस-पास के गाँवों के हिंदू परिवारोें के साथ-साथ ब्रिटिश सेना
के भी हाथ-पाँव फूल गए थे क्योंकि पूरे भारतवर्ष में किसी भी गाँव-शहर
कस्बे में ऐसी नौबत नहीं आई थी। देश के सभी हिस्सों से मुसलमान शांतिप्रिय
तरीके से गाँव खाली कर पाकिस्तान जा रहे थे। लोहारी राघो के अलावा भी
हरियाणा में रांगड़ मुसलमानों के बड़े गाँव, शहर व कस्बे थे जैसे कि जुंडला,
असंध, निसिंग, मुनक, भाटला, चांदी, बहशी, पुट्ठी, कान्ही आदि। लेकिन सभी
गाँवों के मुसलमान सरकार द्वारा किए विभाजन के फैसले के अनुसार शांतिप्रिय
तरीके से पाकिस्तान जा रहे थे। गाँव न छोड़ने का फैसला सिर्फ और सिर्फ
लोहारी राघो के मुसलमानों ने ही लिया था और यहाँ आस-पास के कई गाँवों के
मुसलमानों ने एकजुट होकर मोर्चे लगा लिए थे। लेकिन अंगे्रज सेना के टैंकों
के सामने जो भी आया, बच न पाया। सेना के गाँव में घुसने पर मुसलमानों में
भगदड़ मच चुकी थी। हर कोई अपनी जान बचाने की जुगत में था। कोई छतों के
रास्ते भाग रहा था तो कोई छिपने के लिए तलाश रहा था सुरक्षित ठिकाना। गाँव
लोहारी राघो की धरती खून से लाल हो चुकी थी। चहुं ओर लाशें बिछी थी।
गलियों-नालियों में हर तरफ बह रहा था तो इंसानों का खून। किसी ने पिता खोया
तो किसी ने भाई, चाचा, ताऊ तो किसी ने अपना बेटा। इस नरसंहार में सैकड़ों
मुस्लमान मारे गए। वर्ष 1947 में विभाजन के बावजूद भी आखिर गाँव खाली करने
को क्यों तैयार नहीं थे मुसलमान, क्या थे यहाँ के मुसलमानों के खतरनाक
मंसूबे, ब्रिटिश सेना ने कैसे संभाला मोर्चा और कैसे टूटी लोहारी? गदर आॅफ
लोहारी राघो में पहली बार विस्तार से पढें कभी मुसलमान बाहुल्य गाँव रहे
लोहारी राघो के इतिहास से जुड़ी अनोखी, अनसुनी दास्तान। बता रहे हैं संदीप कम्बोज
कई गाँवों के मुसलमानों ने लोहारी में डाल लिया था डेरा
लोहारी के कुख्यात हाकम अली सक्का घोड़ी वाले के हाथ थी विद्रोह की कमान
हाकम अली सक्का ने कर दी थी सिसाय गाँव के रघुबीर सिंह की हत्या
मुसलमानों ने गाँव के चहुंओर खोद दी थी खाई, लगाए गए थे मोर्चे, इदगाह पर था सबसे बड़ा मोर्चा
बरसात का फायदा उठा रातों-रात भागे थे मुसलमान, सेना ने घेर रखा था गाँव
पड़ोसी गाँवों के हिंदुओं ने लोहारी के हिंदुओं को दी थी गाँव से निकलने की सलाह
गाँव लोहारी राघो निवासी 102 वर्षीय बनवारी लाल बताते हैं कि अंग्रेजों के हमले से एक-दो दिन पहले ही पड़ोसी गाँवों (सिसाय,डाटा,बयाना खेड़ा व राखी) के हिंदुओं ने गाँव लोहारी राघो के हिंदू परिवारों को कुछ दिन के लिए गाँव छोड़कर दूसरे गाँवों मेें जाने की सलाह दी थी। वे बताते हैं कि पड़ोसी गाँव के हिंदू गाँव को लूटने की फिराक में तैयार बैठे थे तथा वे लगातार लोहारी के चक्कर लगाकर हिंदुओं को भी गाँव से चले जाने को कह रहे थे। बनवारी लाल के मुताबिक वे स्वंय भी अपने परिवार के साथ राखी गाँव में चले गए थे। वहीं 93 वर्षीय ग्रामीण उजाला राम संभरवाल भी यही बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के हमले से पहले हिंदू परिवार गाँव छोड़कर सुरक्षित ठिकानों पर शरण ले चुके थे। उजाला राम भी परिवार सहित दूसरी जगह चले गए थे तथा काफी समय बाद लौटकर लोहारी आए। इसके अलावा 93 वर्षीय धन सिंह सैनी ने बताया कि हिंदू परिवार अपने घरों में ताले लगा मुसलमानों द्वारा लगाए मोर्चों से बाहर निकल गए। कोई हिंदू परिवार दूसरे गाँवों में अपने सगे-संबंधियों के पास गए तो कुछ परिवारों ने पड़ौसी गाँवों डाटा, मसूदपुर, गढ़ी अजीमा, राखी व हैबतपुर आदि गाँवों में शरण ली। गाँव में पूरी तरह से हालात सामान्य होने के बाद कोई 2-3 दिन बाद ही वापिस लौट आया तो कोई एक सप्ताह तो कोई एक-दो महिने बाद। धन सिंह सैनी के मुताबिक जिस दिन लोहारी राघो पर ब्रिटिश सेना का अटैक हुआ, उस दिन वे ईख यानि गन्ने तोड़ने के लिए सिसाय गाँव की तरफ गए हुए थे। लेकिन जब दोपहर बाद वापस लोहारी राघो लौटे तो गाँव के चारों तरफ बड़ी तादाद में सेना की गाड़ियां देख डर गए। इस दौरान उन्हें किसी ने बताया कि उनके परिवार के सभी सदस्य गाँव डाटा की तरफ चले गए हैं। धन सिंह सैनी बताते हैं कि वे भी डाटा चले गए थे तथा दो-तीन दिन बाद हालात पूरी तरह से सामान्य होने के उपरांत ही लोहारी राघो लौटे।
गाँव छोड़ते वक्त गले लिपटकर खूब रोए थे हिंदू-मुसलमान
हम पहले ही बता चुके हैं कि गाँव लोहारी राघो के हिंदू व मुसलमानों के बीच कभी कोई विवाद नहीं था। दोनोंं समुदाय के लोग आपस में मिल-जुलकर रहते थे। 103 वर्षीय बनवारी लाल सरोहा के मुताबिक जब ब्रिटिश सेना गाँव की तरफ बढ़ रही थी तो हमले से पहले लोहारी के मुसलमानों ने भी गाँव में रहने वाले हिंदू परिवारों को गाँव छोड़कर चले जाने के लिए कहा था। मुसलमान बिल्कुल नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से हिंदू परिवार भी बेमौत मारे जाएं। हिंदुओं को भी अहसास हो गया था कि गाँव में कुछ बड़ा होने वाला है तथा अब कुछ दिन के लिए गाँव से बाहर जाने में ही भलाई है। वे बताते हैं कि जब लोहारी के हिंदू परिवार गाँव छोड़कर दूसरे गाँव में शरण लेने को जा रहे थे तो मुसलमानों संग गले लिपटकर खूब रोए थे। विदाई की इस वेला में हर आँख नम थी, और हर गला भरा हुआ। सच में आसमां भी रो उठा था उस दिन। हर निगाह एक-दूसरे को एक टक निहारे जा रही थी कि पता नहीं दोबारा कभी एक-दूसरे को देख भी पाएंगे या नहीं। यह आखिरी वक्त था जब लोहारी राघो के हिंदू-मुसलमानों ने एक-दूसरे को देखा था।
लोहारी टूटते ही गाँव में दो दिन तक हुई जमकर लूटपाट, खिड़की-दरवाजे तक उतार ले गए थे लुटेरे
ब्रिटिश सेना के अटैक के बाद चहुंओर लोहारी राघो के टूटने का ढ़िंढ़ोरा पिट गया और 20 अक्तूबर से शुरू हो गया गाँव के घरों में लूटपाट का सिलसिला। क्योंकि मुसलमानों के गाँव छोड़ते ही सेना भी यहाँ से जा चुकी थी। पहले से ही ताक(इंतजार) में बैठे आस-पास के गाँवों के ग्रामीणों ने मुसलमानों व हिंदुओं के घरों पर धावा बोल दिया और सभी पशु गाय, भैंस, बैल आदि सब खोल ले गए। लुटेरों के हाथ जो भी पैसा, जेवर व कीमती सामान आया, सब लूट ले गए। ग्रामीण धन सिंह सैनी के मुताबिक उस समय पड़ौसी गाँवों के लुटेरों ने मुसलमानों के घरों के साथ-साथ हिंदुओं के घरों में भी डाका डाला था। क्योंकि ब्रिटिश सेना के डर से हिंदू परिवार भी लोहारी राघो छोड़कर दूसरे गाँवों में जा चुके थे। वे बताते हैं कि उस समय लोहारी राघो में लूटपाट का इस कदर नंगा नाच हुआ था कि लुटेरे घरों के खिड़कियां, दरवाजे तक उतार ले गए थे। 103 वर्षीय बनवारी लाल सरोहा के मुताबिक पड़ौसी गाँवों के लोग काफी दिनों से इंतजार में थे कि कब यहाँ के मुसलमान गाँव से छोड़कर जाएं और वे घरों में लूटपाट करें। 98 वर्षीय छोटो देवी जांगड़ा बताती हैं कि मुसलमानों को गाँव से निकालने के लिए ब्रिटिश सेना द्वारा जो एक्शन लिया गया था, उससे करीब दो माह पहले ही वे लोहारी से अपने मायका गाँव सिसाय चली गई थी। जब वे लौटकर लोहारी आई तो उनके घर में भी सब कुछ लुट चुका था। घर के बर्तन, संदूख, बिस्तर समेत सारा कीमती सामान गायब था। वे पूरे दावे के साथ बताती हैं कि उनके घर से लूटा गया सामान गाँव डाटा में देखा गया था और वहां लुटेरों द्वारा उसकी बोली लगाई गई थी। वे बताती हैं कि मुसलमानों के जाने के बाद लुटेरों ने लोहारी राघो में जमकर उत्पात मचाया था। बता दें कि छोटो देवी गाँव सिसाय निवासी उदय सिंह जांगड़ा की बेटी हैं। आजादी से दो साल पहले वर्ष 1945 में छोटो देवी का विवाह गाँव लोहारी राघो निवासी रामजीलाल के बेटे दीवान सिंह जांगड़ा के साथ हुआ था। इनकी दो बेटियां हैं एक अंगूरी जांगड़ा जो अध्यापिका हैं तथा वर्तमान में जिला जींद के गाँव रामराय में रह रही हैं जबकि दूसरी बेटी ओमपति का विवाह हिसार के गाँव माजरा में हुआ है। इनके पति दीवान सिंह जांगड़ा का विभाजन के कुछ वर्ष पश्चात ही निधन हो गया। बताते हैं कि ब्रिटिश सेना से पहले लोहारी राघो पर आस-पास के दर्जनभर गाँवों के लुटेरों द्वारा एकजुट होकर जितने भी हमले किए गए थे, सभी का मकसद मुसलमानों को यहाँ से खदेड़कर उनके घरों को लूटना था। लेकिन 8-10 गाँवों के हिंदुओं द्वारा 11 से ज्यादा हमले करने के बावजूद भी वे लोहारी राघो को तोड़ नहीं पाए थे। अंत में सेना को एक्शन लेना पड़ा था।
डाटा, बरवाला, भूना, डबवाली, फाजिल्का से मुल्तान के रास्ते बस्ती मलूक पहुंचे लोहारी राघो के मुसलमान
गाँव लोहारी राघो के हिंदू व मुसलमानों के बीच काफी सौहार्द था तथा वे हमेशा ही प्यार, मोहब्बत से रहते थे। अंग्रेजों द्वारा किए गए हमले के उपरांत गाँव छोड़ते वक्त भी लोहारी राघो के मुसलमानों ने भाईचारे की ऐसी गजब मिसाल पेश की जिससे ग्रामीण आज भी उनके कायल हैं। 98 वर्षीय छोटो देवी जांगड़ा बताती हैं कि विभाजन से पहले गाँव लोहारी राघो में एक गुलाब बनिया का मकान था। गुलाब बनिया के निधन के उपरांत उनकी पत्नी धापां अपनी दो जवान बेटियों के साथ अपने घर में रह रही थी। गुलाब बनिया का मकान लोहारी राघो में ठीक उस जगह पर था जहाँ आज पृथ्वी जांगड़ा का मकान है। इसके साथ ही गीगो बनिया का मकान था। छोटो देवी जांगड़ा ने बताया कि जिस दिन लोहारी राघो पर अंग्रेजी सेना ने हमला किया था तो पूरा गाँव सुनसान हो चुका था। क्योंकि हिंदू तो सेना के अटैक के भय से पहले ही गाँव छोड़कर अन्य गाँवों में शरण ले चुके थे। मुसलमान अपने भरे घर छोड़कर पाकिस्तान जा रहे थे। इस दौरान आस-पास के गाँवों के लुटेरों की नजर वीरान हो चुके गाँव लोहारी राघो पर थी क्योंकि वे घरों को लूटने की फिराक में थे। उस दिन हिंदू परिवारों में सिर्फ एक धापां देवी ही अपनी जवान बेटियों के साथ गाँव में मौजूद थी। जब मुसलमानों को इस बाबत पता चला कि गाँव में धापां देवी अकेली हैं और उनके घर में दो जवान बेटियां भी हैं तो उन्होंने किसी अनहोनी का अंदेशा जताते हुए उन्हें भी अपने साथ कबीले में ले लिया तथा बरवाला तक अपने साथ ले गए। वहां जाकर मुसलमानों ने धापां देवी व उनकी दोनों बेटियों को उनके रिश्तेदार के घर सुरक्षित छोड़ दिया। इस तरह मुसलमानों ने धापां देवी व उनकी बेटियों की जान व इज्जत बचाई। क्योंकि मुसलमानों के जाने के बाद यदि वे अकेली गाँव में रहती तो उनके साथ कुछ भी अनहोनी हो सकती थी। क्योंकि हम पहले ही बता चुके हैं कि मुसलमानों के गाँव छोड़ने के उपरांत दो दिन तक गाँव में जमकर लूटपाट हुई थी।
जानें, आज कैसे मेवात बन चुका होता लोहारी राघो का इलाका
यहाँ यह बताना भी जरुरी है कि विभाजन के दौर में पूरे हरियाणा में लोहारी राघो ही एकमात्र ऐसा गाँव था जिसे खाली करवाने के लिए स्वंय ब्रिटिश सेना को दिल्ली से आकर मोर्चा संभालना पड़ा था। जरा कल्पना कीजिए यदि ब्रिटिश सेना उस समय मुसलमानों को न खदेड़ती तो आज यहाँ क्या होता। जिला हिसार के गाँव लोहारी राघो व मोठ समेत आस-पास के कई गाँव अब तक मुस्लिम बाहुल्य गाँव बन चुके होते। 75 साल बाद आज यह इलाका पूरी तरह से मेवात बन चुका होता और यहाँ का इतिहास, भूगोल, कल्चर, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान सब अलग होता। यहाँ रहने वाले मुसलमानों का इस इलाके को मिनी पाकिस्तान बनाने का सपना भी अब तक पूरा हो चुका होता। सरकारी कर्मचारी यहाँ नौकरी करने से कतराते। हरियाणा सरकार को मेवात की मानिंद यहाँ के लिए भी अलग से नौकरी के पद सर्जित करने पड़ते। यहाँ काम करने वाले कर्मचारियों को मेवात की मानिंद सैलरी पैकेज व सुविधाएं भी ज्यादा देनी पड़ती। पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए जो अरोड़ा, कम्बोज, खत्री व सिख समुदाय के परिवार आज इन गाँवों में आबाद हैं, वे कहीं और होते क्योंकि उस समय सरकार ने सिर्फ उन्हीं गाँवों-शहरों में विस्थापितों को मकान,खेत अलाट किए थे जो मुस्लिम बाहुल्य थे तथा मुसलमान वहाँ से छोड़कर पाकिस्तान जा चुके थे। लोहारी राघो अब तक 95 फीसद मुस्लिम गाँव बन चुका होता। क्योंकि विभाजन से पहले यहाँ केवल 25-30 फीसद हिंदू परिवार ही आबाद थे। जी हाँ! बिल्कुल ठीक पढ़ा आपने। वर्ष 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के उपरांत उपजे हालातों को यदि ब्रिटिश सेना ने उस समय नजरअंदाज कर दिया होता तो आज हरियाणा के जिला हिसार में भी एक और मेवात होता। आज यहाँ का इतिहास कुछ ओर होता तो भूगोल, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान व कल्चर कुछ ओर।
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