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Gadar आफ लोहारी राघो : 1947 में आज ही के दिन लोहारी राघो में हुआ था कत्लेआम, जानें अंग्रेज सेना ने कैसे चुन-चुन कर मुसलमानों को उतारा था मौत के घाट, आज भी दिवारों पर दिखाई दे रहे सेना द्वारा बरसाई गोलियों के निशान

1947 में ब्रिटिश सेना ना संभालती मोर्चा तो हरियाणा में होता एक और मेवात,  पढ़ें बंटवारे की खौफनाक दास्तान 

  • लोहारी राघो, मोठ व आस-पास का इलाका आज बन चुका होता मिनी पाकिस्तान
  • ब्रिटिश सेना द्वारा किए 12वें हमले में गई थी सैकड़ों मुसलमानों की जान तो रातों-रात गाँव छोड़कर भागे थे पाकिस्तान
  • विभाजन के दो माह बाद भी गाँव से पलायन करने को तैयार नहीं थे मुसलमान
  • आस-पास के कई गाँवों के मुसलमानों ने लोहारी राघो में एकजुट होकर लगा लिए थे मोर्चे
  • गाँव खाली करवाने को पड़ोसी गाँवों के ग्रामीणों ने किए थे दर्जनभर अटैक

विभाजन या बंटवारा किसी देश, भूमि या सीमा का नहीं होता। विभाजन तो लोगों की जिंदगी, भावनाओं का हो जाता है जो इतने गहरे जख्म दे जाता है कि आने वाली कई नस्लों की जिंदगी भी उन खौफनाक पलों को याद कर सिहर उठती है। आज हम आपको 75 साल पुरानी भारत विभाजन की एक ऐसी ही अनसुनी रुह कंपा देने वाली दास्तान बताने जा रहे हैं जिस पर आज तक न ही तो किसी भारतीय इतिहासकार की नजर गई और न ही फिल्मकार की। यह कहानी हैअपने पूर्वजों की यादों और वतन की मिट्टी से लिपटकर रहने की चाहत रखने वाले उन मुसलमानों की जो विभाजन के बाद भी पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे। बस इसी चाहत में हुक्मरानों द्वारा किए विभाजन के फैसले को दरकिनार कर सेना से भिड़ गए। हम बात कर रहे हैं हरियाणा के जिला हिसार में तहसील नारनौंद स्थित गाँव लोहारी राघो की जहां आज से 75 साल पहले आज ही के दिन 19 अक्तूबर 1947 को बंटवारे का वो खूनी अध्याय लिखा गया जिसे आज तक इतिहास के किसी भी पन्ने में जगह नहीं मिल पाई। मुसलमानों का सबसे बड़ा गढ़ माने जाने वाले गाँव लोहारी राघो से मुसलमानों को खदेड़ने के लिए ब्रिटिश सेना द्वारा जो कत्ले आम किया गया, उसे याद कर आज भी रुह कांप उठती है।
14 अगस्त 1947 का वह मनहूस दिन जब सियासतदानों की गंदी व खुदगर्ज राजनीति की बदौलत धर्म और मजहब के नाम पर भारत का विभाजन कर दिया गया। बंटवारे के इस काले अध्याय का हर पन्ना मनुष्यता के खून के छींटों से भरा है। धर्म के आधार पर हिन्दुओं के लिए भारत तो मुस्लमानों के लिए अलग मुल्क बनाया गया पाकिस्तान। तय हुआ कि सभी हिन्दु भारत में रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में। 15 अगस्त 1947 को आजादी के तुरंत बाद ही दोनों मुल्कों में पलायन शुरू हो गया। पाकिस्तान में रहने वाले हिंदु व सिक्ख भारत आ रहे थे तो भारत में रहने वाले मुसलमान पाकिस्तान में जाने लगे। लेकिन हरियाणा के जिला हिसार के तहसील हांसी(उस समय)स्थित मुस्लिम बाहुल्य गाँव लोहारी राघो के मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने से साफ इन्कार कर दिया और दो टूक कहा कि वे किसी कीमत पर अपनी जमीन को छोड़कर नहीं जाएंगे, वे यहीं पर मिनी पाकिस्तान बना देंगे चाहे अंजाम कुछ भी हो। लोहारी राघो के मुसलमानों द्वारा किए इस विद्रोही ऐलान के बाद आस-पास के गाँवों के हिंदू परिवारोें के साथ-साथ ब्रिटिश सेना के भी हाथ-पाँव फूल गए थे क्योंकि पूरे भारतवर्ष में किसी भी गाँव-शहर कस्बे में ऐसी नौबत नहीं आई थी। देश के सभी हिस्सों से मुसलमान शांतिप्रिय तरीके से गाँव खाली कर पाकिस्तान जा रहे थे। लोहारी राघो के अलावा भी हरियाणा में रांगड़ मुसलमानों के बड़े गाँव, शहर व कस्बे थे जैसे कि जुंडला, असंध, निसिंग, मुनक, भाटला, चांदी, बहशी, पुट्ठी, कान्ही आदि। लेकिन सभी गाँवों के मुसलमान सरकार द्वारा किए विभाजन के फैसले के अनुसार शांतिप्रिय तरीके से पाकिस्तान जा रहे थे। गाँव न छोड़ने का फैसला सिर्फ और सिर्फ लोहारी राघो के मुसलमानों ने ही लिया था और यहाँ आस-पास के कई गाँवों के मुसलमानों ने एकजुट होकर मोर्चे लगा लिए थे। लेकिन अंगे्रज सेना के टैंकों के सामने जो भी आया, बच न पाया। सेना के गाँव में घुसने पर मुसलमानों में भगदड़ मच चुकी थी। हर कोई अपनी जान बचाने की जुगत में था। कोई छतों के रास्ते भाग रहा था तो कोई छिपने के लिए  तलाश रहा था सुरक्षित ठिकाना। गाँव लोहारी राघो की धरती खून से लाल हो चुकी थी। चहुं ओर लाशें  बिछी थी। गलियों-नालियों में हर तरफ बह रहा था तो इंसानों का खून। किसी ने पिता खोया तो किसी ने भाई, चाचा, ताऊ तो किसी ने अपना बेटा। इस नरसंहार में सैकड़ों मुस्लमान मारे गए। वर्ष 1947 में विभाजन के बावजूद भी आखिर गाँव खाली करने को क्यों तैयार नहीं थे मुसलमान, क्या थे यहाँ के मुसलमानों के खतरनाक मंसूबे, ब्रिटिश सेना ने कैसे संभाला मोर्चा और कैसे टूटी लोहारी? गदर आॅफ लोहारी राघो में पहली बार विस्तार से पढें कभी मुसलमान बाहुल्य गाँव रहे लोहारी राघो के इतिहास से जुड़ी अनोखी, अनसुनी दास्तान। बता रहे हैं संदीप कम्बोज
 

कई गाँवों के मुसलमानों ने लोहारी में डाल लिया था  डेरा

14 अगस्त 1947 को हुए भारत-पाक विभाजन के दो माह बाद भी यहाँ रहने वाले मुसलमान किसी भी कीमत पर पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं थे। उन्होंने तय कर लिया था कि वे यहीं पर मिनी पाकिस्तान बना देंगे, चाहे अंजाम कुछ भी हो। आस-पास के कई गाँवों के मुसलमान परिवारों ने एकजुट होकर लोहारी में डेरा डाल लिया था तथा गाँव के चारों तरफ गहरी खाई (नाला) खोदकर उसमें पानी भर दिया था ताकि पुलिस, सेना का कोई वाहन या कोई भी बाहरी व्यक्ति गाँव में प्रवेश न कर सके। गाँव के चारों तरफ मोर्चे लगाए गए थे जिसे तोड़ने के लिए आस-पास के गाँव सिसाय, बयाना खेड़ा, हैबतपुर, राखी शाहपुर, फरमाना समेत कई गाँवों के हिंदूओं खासकर जाटों ने एड़ी चोटी का जोर लगाया। इन गाँवों के लोगों द्वारा लोहारी राघो पर कुल 11 बार अटैक किए गए लेकिन कोई भी इन्हें भेदकर गाँव में घुस नहीं पाया और मुसलमानों से गाँव खाली करवाने यानि लोहारी को तोड़ने में असमर्थ रहे। आस-पास के गाँवों के लोगों व पूरे हिसार जिला की पुलिस द्वारा हथियार डाल दिए जाने के बाद अंग्रेज सेना ने सही समय पर सही फैसला लेते हुए स्वंय मोर्चा संभाला तथा 19 अक्तूबर 1947 के दिन पूरे गाँव को घेर लिया। ब्रिटिश सेना ने मुसलमानों द्वारा लगाए सभी मोर्चों को तोड़ते हुए सैकड़ों मुसलमानोें को मौत के घाट उतार डाला। 19 अक्तूबर 1947 के दिन अंग्रेज सिपाहियों द्वारा की गई इस गोलीबारी में करीब 1000 से भी ज्यादा मुसलमान मारे गए तो भय से कांपते मुसलमानों ने रातों-रात गाँव छोड़ने का फैसला लिया और कबीले (झुंड)बनाकर गाँव डाटा, गुराना होते हुए बरवाला की तरफ प्रस्थान कर गए। कुछ दिन बरवाला में रुकने के उपरांत भूना, डबवाली व फाजिल्का होते हुए पाकिस्तान के पंजाब प्रांत स्थित मुलतान पहुंचे तथा वहाँ से पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जाकर बस गए।

लोहारी के कुख्यात हाकम अली सक्का घोड़ी वाले के हाथ थी विद्रोह की कमान
लोहारी राघो के गदर में सबसे अहम किरदार था हाकम अली सक्का जो कि घोड़ी वाले के नाम से मशहूर था तथा विभाजन के बाद मुसलमानों द्वारा छेड़े गए विद्रोह का नेतृत्व कर रहा था। हाकम अली सक्का उस समय का वह गब्बर सिंह था जिसके नाम से ही हर कोई सहम जाता था। इनकी बहादुरी के चर्चे दूर-दराज तक थे तथा ब्रिटिश सेना व पुलिस के अफसर भी हाकम अली का नाम सुनते ही कांप उठते थे। हाथ में खूंखार भाला लिए जब वह कुख्यात घोड़ी पर सवार होकर निकलता था तो सभी भागकर घरों में दुबक जाते और दरवाजे बंद कर लेते। गलियों में एकदम सन्नाटा पसर जाता। ठीक वैसे, जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों में जब डाकू घोड़ों पर सवार होकर गाँव, बस्ती में आते थे तो लोग खौफ में दरवाजे बंद कर घरों में कैद हो जाते थे। विभाजन से पहले ठीक ऐसा ही फिल्मी नजारा था गाँव लोहारी राघो का। क्या मजाल कोई घर से बाहर झांकने की भी हिम्मत कर जाए। कोई यदि गलती से भी सामने आ जाता, जिंदा न जाने पाता। बताते हैं कि हाकम अली सक्का का एक और मित्र था धनी सिंह जो कि गाँव मोठ का बताया जा रहा है। जब ये दोनों पीठ से पीठ मिलाकर लड़ते थे तो एक साथ सौ से भी अधिक लोगों से लड़ने का दम रखते थे। हाकम अली सक्का का एक नियम था कि वह रोजाना दिन में 3-4 बार गाँव के बाहर डेढ़ किमी तक का चक्कर लगाता था। इस दौरान जो भी उसके सामने आता, उसकी जान जाना लाजिमी था। रोजाना एक-दो को मौत के घाट उतारना उसके लिए मामूली बात थी। कई अंग्रेज सिपाहियों, ब्रिटिश पुलिस व सेना अफसरों, प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारियों सहित कई गाँवों के दर्जनों लोगों को मौत के घाट उतार चुका था लोहारी राघो का यह कुख्यात। बताते हैं कि इसी वजह से उसकी सारी जिंदगी रेल और जेल में ही कटी। गाँव-गुवांड में किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उसके खिलाफ गवाही दे सके। इसी का फायदा उठाकर वह हर बार बरी हो जाता और फिर से कत्ल कर दोबारा जेल पहुंच जाता। 14 अगस्त 1947 को भारत-पाक विभाजन के उपरांत जब लोहारी राघो के मुसलमानों ने पाकिस्तान न जाने का फैसला लिया था तो उस समय विद्रोह का नेतृत्व हाकम अली सक्का ही कर रहा था।

हाकम अली सक्का ने कर दी थी सिसाय गाँव के रघुबीर सिंह की हत्या
15 अक्तूबर 1947 की बात है। दोपहर का समय था। सिसाय गाँव के चौधरी लाजपत राय साहब के बेटे रघुबीर सिंह अपने गाँव के ही कुछ साथियों के साथ गाँव लोहारी राघो की तरफ आ रहे थे। जैसे ही वे गाँव के दक्षिण दिशा में इदगाह(वर्तमान मेें राजकीय वरिष्ष्ठ माध्यमिक विद्यालय के भीतरी भाग में स्थित) से करीब 300-400 मीटर की दूरी पर स्थित ड्रेन के पास पहुंचे तो अचानक सामने से गाँव के कुछ रांगड़ मुसलमान आ गए और उन्हें घेर लिया। मुसलमानोें को लगा कि वे उनके घरों में लूटपाट करने व उनकी बहू-बेटियों से बदनियति के इरादे से यहाँ आए हैं क्योंकि राय साहब  के बेटे रघुवीर के पास उस समय बंदूक भी थी।भीड़ में से किसी ने रघुबीर सिंह के कमर पर बंधी बंदूक की गोलियों वाली बैल्ट उतार ली। इतने में पीछे से घोड़ी पर सवार हाकम अली सक्का भी आ पहुंचा। हाकम अली को देख भगदड़ मच गई तथा सभी  मुसलमान भी भाग गए। रघुबीर सिंह समेत सभी को मजबूरन बाजरे के खेत में छिपना पड़ा क्योंकि उनकी गोलियों वाली बैल्ट को मुसलमानों ने छीन लिया था। चहुं ओर एकदम से सन्नाटा पसर चुका था। हाकम अली सक्का की घोड़ी सिसाय रोड पर ड्रेन से काफी दूर तक जाकर वापिस गाँव की तरफ लौट पड़ी थी। इधर रघुबीर सिंह बाजरे के खेत में छिपे थे। सूरज की भारी तपिश व गर्मी के कारण वे पसीने से तर-बतर हो चुके थे। चहुंओर पसरे सन्नाटे से उन्हें लगा कि अब सब मुसलमान चले गए हैं। जल्दी से बाहर निकलकर वापस सिसाय लौट जाना चाहिए। बताया जाता है कि सड़क पर कोई है या नहीं, यह देखने के लिए जब कैप्टन रघुबीर सिंह बाजरे के खेत में पक्षिओं को उड़ाने के लिए बने जोंडे पर चढ़े तो इतने में हाकम अली सक्का दोबारा से वहाँ आ पहुंचा। इस बार हाकम अली ने जोंडे पर चढ़े रघुबीर सिंह को देख लिया तथा भाला घोंप-घोंप कर बुरी तरह से उनकी हत्या कर दी।
 
रघुबीर की मौत के बाद गम व गुस्से की आग में सुलग उठा था सिसाय, बदला लेने को खौल रहा था खून
बताते हैं कि जब रघुबीर सिंह की पार्थिव देह को उनके गाँव सिसाय लाया गया तो गुस्से व करुण कु्रंदन से पूरा गाँव दहल उठा। 16 अक्तूबर 1947 को रघुबीर सिंह को हजारों नम आंखों के बीच अंतिम विदाई दी गई थी। रघुबीर सिंह की अंतिम विदाई देने ब्रिटिश पुलिस व सेना के वरिष्ठ अफसर, प्रशासनिक अमला तथा भारी तादाद में ग्रामीण पहुंचे थे।पूरा सिसाय गाँव गम व गुस्से की आग में सुलग रहा था। हर जुबां पर थी तो बस एक ही बात कि लोहारी राघो के मुसलमानों से रघुबीर की हत्या का बदला लिया जाए। बताते हैं कि रघुबीर सिंह की अंतिम विदाई में इनके जीजा जो कि सेना में कैप्टन थे, वो भी आए हुए थे। इसी दिन सिसाय गाँव में ही ब्रिटिश सेना ने लोहारी राघो को तोड़ने (खाली करवाने) का पूरा एक्शन प्लान तैयार कर लिया था। और दिल्ली से टैंक व मशीनगनें मंगवा ली गई जिन्हें गाँव में आते-आते तीन दिन लग गए। 19  अक्तूबर 1947 को दोपहर करीब 12 बजे दिल्ली से आए टैंक व मशीनगनें लोहारी राघो के दक्षिण दिशा में स्थित सिसाय की सड़क पर पहुंच चुकी थी। यहाँ बता दें कि उस समय हांसी-सिसाय सड़क पूरी तरह से कच्ची थी।
   
मुसलमानों ने गाँव के चहुंओर खोद दी थी खाई, लगाए गए थे मोर्चे, इदगाह पर था सबसे बड़ा मोर्चा
सेना के वाहनों व टैंकों को रोकने के लिए मुसलमानों द्वारा लोहारी राघो के चारों तरफ गहरी खाई(नाला) खोदकर मोर्चे लगाए गए थे। सबसे बड़ा मोर्चा दक्षिण दिशा में स्थित इदगाह के पास लगाया गया था और सबसे ज्यादा मुसलमान भी यहीं जुटे थे क्योंकि अंगे्रज सेना यहीं से अटैक करने की तैयारी में थी। हाकम अली सक्का अब भी बाज नहीं आया और उसने लोहार मुसलमानों द्वारा बनाई एक देसी तोफ से सेना पर गोले बरसाने शुरु कर दिए जिसमें दो जवान मारे गए तथा कई बुरी तरह से जख्मी हो गए। बताया जाता है कि यह देसी तोफ जहाँ आज अनाज मंडी है, उसके पास स्थित एक पुराने पीपल के पेड़ के पास बनाई गई थी जिसे आजादी के बाद भी कई सालों तक गाँव के कई बुजुर्गों ने अपनी आंखों से देखा है। यहाँ बड़े बड़े कड़ाहों में तेल को आग से खौलाया जा रहा था तथा उनमें गोलों को पूरी तरह से गर्म करके एक देसी बड़ी तोफ (गुलेल) के माध्यम से सेना के जवानों पर फैंका गया था। गाँव के चारों और खुदी गहरी खाई की वजह से ब्रिटिश सेना के वाहन तो गाँव में प्रवेश कर नहीं सकते थे तो सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने गाँव की इदगाह के पास अपने टैंकों व वाहनों को रोक दिया और ऐलान किया कि सभी मुसलमान अपने हथियार जमा करवा दें और शांतिपूर्वक गाँव खाली करके पाकिस्तान चले जाएं। लेकिन मुसलमान न तो हथियार जमा जमा करवाने को राजी हुए और न ही गाँव खाली करने को। बाद में कुछ मुसलमान गाँव खाली करने को तो तैयार हो गए लेकिन हथियार जमा करवाने पर साफ इनकार कर दिया। हथियार जमा न करवाने के पीछे उनका तर्क था कि यदि वे हथियार ही जमा करवा देंगे तो पाकिस्तान जाते समय बीच रास्ते अपनी बहु-बेटियों की इज्जत कैसे बचा पाएंगे। ब्रिटिश सेना के अफसरों ने गाँव के मुसलमानों के समक्ष बातचीत का भी प्रस्ताव रखा। बातचीत के लिए मुसलमानों के मौजिज लोगों को बुलवाया गया। यहाँ एक जानकारी और भी सामने आई है कि अंग्रेजों ने मुसलमानों से बातचीत के लिए एक कमेटी भी बनाई थी। मसुदपुर गाँव का इतिहास लिखने वाले लेखक ज्ञान चंद आर्य के मुताबिक इस वार्तालाप कमेटी में गाँव लोहारी राघो के मुसलमानों के अलावा आस-पास के गाँवों के कुछ लोग भी शामिल थे। 
 
इस तरह टूटी लोहारी, देखते ही देखते लग गए थे लाशों के ढ़ेर, गलियों-नालियों में बह रहा था खून
वार्तालाप बेनतीजा रही और मुसलमानों ने गाँव खाली करने हथियार जमा जमा करवाने से दो टूक इंकार कर दिया। ब्रिटिश आर्मी ने एक बार तो अपने वाहन, टैंक व मशीनगनों को मोड़कर वापिस सिसाय गाँव की तरफ रुख कर लिया था। मुसलमानों ने सोचा कि सेना उनसे डर गई और वापिस लौट रही है। यह खबर सुनकर गाँव के दूसरे मोर्चों पर तैनात मुसलमान भी इदगाह वाले मोर्चे पर जुटने शुरु हो गए थे। इदगाह के सामने एक तालाब था जिसका दायरा आज सिकुड़कर काफी कम हो गया है। ब्रिटिश सेना के कुछ टैंक तालाब के उस पार भी थे। अचानक से अंग्रेज अफसरों ने सेना को अटैक (हमले) के आदेश दे दिए। बताया जाता है कि यह गाँव लोहारी राघो पर 12वाँ हमला था। अंग्रेज सेना ने इस बार मुसलमानों द्वारा लगाया मोर्चा तोड़ दिया और हजारों जवान गाँव में घुस गए। सभी टैंकों से इदगाह की तरफ दनादन गोलियां बरसने लगी और तड़तड़ाहट के साथ शुरू हो गया कत्ले-आम का वो खूनी खेल जिसे याद कर आज भी पाकिस्तान में बैठे मुसलमानों व उनकी पीढियों तक की रुह कांप उठती है। अंग्रेज सेना की गोलियों के सामने जो भी आया, बच न पाया। सेना के गाँव में घुसने पर मुसलमानों में भगदड़ मच चुकी थी। हर कोई अपनी जान बचाने की जुगत में था। कोई छतों के रास्ते भाग रहा था तो कोई छिपने के लिए तलाश रहा था सुरक्षित ठिकाना। इस दौरान सबसे पहली गोली हाकम अली के छोटे भाई मुंशी की जांघ में लगी थी जो बुरी तरह से जख्मी हो गया था। इस हमले में खुद हाकम अली सक्का तथा उसका दूसरा भाई छोटू खान समेत सैकड़ों मुसलमान मारे गए। गाँव लोहारी राघो की धरती खून से लाल हो चुकी थी। चहुं ओर लाशें  बिछी थी। गलियों-नालियों में हर तरफ बह रहा था तो इंसानों का खून। किसी ने पिता खोया तो किसी ने भाई, चाचा, ताऊ तो किसी ने अपना बेटा। बताया जाता है कि इस नरसंहार में सैकड़ों मुस्लमान मारे गए। इस गदर में मारे गए मुसलमानों की वास्तविक संख्या का तो पता नहीं चल पाया है लेकिन इस गदर को अपनी आंखों से देखने वाले व इस घटना से संबंध रखने वाले हिंदू व मुसलमानों के अलग-अलग तर्क हैं। गाँव लोहारी राघो निवासी 102 वर्षीय बनारसी दास सरोहा की मानें तो ब्रिटिश सेना के इस हमले में एक हजार से ज्यादा मुसलमानों की जान गई थी। सिसाय निवासी धर्मपाल मलिक के मुताबिक इस हमले में करीब 500-600 लोगों की मौत हुई थी इस पूरे मंजर को अपनी आंखों से देखने वाले गाँव लोहारी राघो छोड़कर पाकिस्तान के मुल्तान स्थित डेरा मुहाम्मदी में रहने वाले एक वृद्ध मुहम्मद सुलेमान बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के इस हमले में सबसे ज्यादा मौतें गाँव के दक्षिण में स्थित ईदगाह में हुई। यह सब उनकी आंखों के सामने हुआ। उस समय उनकी उम्र  22 साल थी। अंग्रेजों के इस हमले में गाँव लोहारी राघो के करीब 500 से ज्यादा मुसलमान मारे गए थे। गाँव मसूदपुर निवासी ज्ञान चंद आर्य बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के इस हमले में मुसलमानों के अलावा आस-पास के गाँवों के कुछ हिंदू लोग भी मारे गए थे। जिनमें दो लोग तो मसूदपुर गाँव से थे जो मुसलमानों से बातचीत के लिए बनाई गई वार्तालाप कमेटी में ही शामिल थे। इसके अलावा इस हमले में गाँव सिसाय से दो, हैबतपुर से एक, बयाना खेड़ा से एक तथा गाँव थापर खेड़ा से भी एक व्यक्ति की जान गई थी 
 
लोहारी राघो। ईदगाह की दीवारों पर अंग्रेज सेना द्वारा बरसाई गई गोलियों के निशान आज भी मौजूद हैं।  गुलाबी रंग के गोले मेें आज भी दिखाई दे रहे हैं गोलियों के निशान। वर्तमान में यह ईदगाह गांव के दक्षिण दिशा में स्थित राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय के भीतरी भाग में स्थित है। कुछ साल पहले तक इसी ईदगाह की सभी दीवारों पर गोलियों के सैकड़ों निशान मौजूद थे। सबसे ज्यादा निशान इदगाह के द्वार वाली दीवार पर मौजूद थे जिसे अब ढ़हा दिया गया है। वर्तमान में  केवल इसके पीछे की एक ही दीवार बची है जिस पर यह कुछ निशान आज भी मौजूद हैं।      तस्वीर : प्रवीन खटक


बरसात का फायदा उठा रातों-रात भागे थे मुसलमान, सेना ने घेर रखा था गाँव
19 अक्तूबर 1947 के दिन जब ब्रिटिश सेना ने गाँव लोहारी राघो को घेर रखा था तो बताते हैं कि दोपहर बाद अचानक से मौसम खराब हो गया और बूंदाबांदी होने लगी। देर शाम तक भी झड़ (बरसात) ने रुकने का नाम नहीं लिया तो सड़कें कच्ची होने की वजह से दलदल में बदल गई। अब सेना की गाड़ियां भी इस दलदल में फंस चुकी थी और बरसात अभी भी जारी रही। रात होते-होते सेना ने भी गाँव के बाहर दक्षिण की तरफ डेरा डाल लिया था और बरसात थमने का इंतजार किया जाने लगा। सेना का प्लान था कि बरसात थमते ही फिर से अटैक कर गाँव खाली करवाया जाएगा। इधर सैकड़ों लोगों की मौत से गाँव के मुसलमानों में कोहराम मचा था। भय से कांपते मुसलमानों ने रात 10 बजे गाँव छोड़ने का फैसला लिया क्योंकि अब उन्हें समझ आ चुका था कि ब्रिटिश सेना गाँव खाली करवाए बिना वापिस नहीं लौटेगी। 19 अक्तूबर की रात को ही उन्होंने हमले में जान गंवाने वाले मृतकों को कब्रिस्तान में दफनाया और अलग-अलग कबिले (झुंड) बनाकर पश्चिम दिशा में गाँव डाटा की तरफ पलायन कर गए। ब्रिटिश सेना के हमले में मारे गए मृतक मुसलमानों के शवों को दफनाने के संबंध में 92 वर्षीय धन सिंह सैनी बताते हैं कि मृतक शवों को सेना, पुलिस के जवानों तथा लोहारी के स्थानीय हिंदुओं ने दफनाया था।

पड़ोसी गाँवों के हिंदुओं ने लोहारी के हिंदुओं को दी थी गाँव से निकलने की सलाह
गाँव लोहारी राघो निवासी 102 वर्षीय बनवारी लाल बताते हैं कि अंग्रेजों के हमले से एक-दो दिन पहले ही पड़ोसी गाँवों (सिसाय,
डाटा,बयाना खेड़ा व राखी) के हिंदुओं ने गाँव लोहारी राघो के हिंदू परिवारों को कुछ दिन के लिए गाँव छोड़कर दूसरे गाँवों मेें जाने की सलाह दी थी। वे बताते हैं कि पड़ोसी गाँव के हिंदू गाँव को लूटने की फिराक में तैयार बैठे थे तथा वे लगातार लोहारी के चक्कर लगाकर हिंदुओं को भी गाँव से चले जाने को कह रहे थे। बनवारी लाल के मुताबिक वे स्वंय भी अपने परिवार के साथ राखी गाँव में चले गए थे। वहीं 93 वर्षीय ग्रामीण उजाला राम संभरवाल भी यही बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के हमले से पहले हिंदू परिवार गाँव छोड़कर सुरक्षित ठिकानों पर शरण ले चुके थे। उजाला राम भी परिवार सहित दूसरी जगह चले गए थे तथा काफी समय बाद लौटकर लोहारी आए। इसके अलावा 93 वर्षीय धन सिंह सैनी ने बताया कि हिंदू परिवार अपने घरों में ताले लगा मुसलमानों द्वारा लगाए मोर्चों से बाहर निकल गए। कोई हिंदू परिवार दूसरे गाँवों में अपने सगे-संबंधियों के पास गए तो कुछ परिवारों ने पड़ौसी गाँवों डाटा, मसूदपुर, गढ़ी अजीमा, राखी व हैबतपुर आदि गाँवों में शरण ली। गाँव में पूरी तरह से हालात सामान्य होने के बाद कोई 2-3 दिन बाद ही वापिस लौट आया तो  कोई एक सप्ताह तो कोई एक-दो महिने बाद। धन सिंह सैनी के मुताबिक जिस दिन लोहारी राघो पर ब्रिटिश सेना का अटैक हुआ, उस दिन वे ईख यानि गन्ने तोड़ने के लिए सिसाय गाँव की तरफ गए हुए थे। लेकिन जब दोपहर बाद वापस लोहारी राघो लौटे तो गाँव के चारों तरफ बड़ी तादाद में सेना की गाड़ियां देख डर गए। इस दौरान उन्हें किसी ने बताया कि उनके परिवार के सभी सदस्य गाँव डाटा की तरफ चले गए हैं। धन सिंह सैनी बताते हैं कि वे भी डाटा चले गए थे तथा दो-तीन दिन बाद हालात पूरी तरह से सामान्य होने के उपरांत ही लोहारी राघो लौटे। 

गाँव छोड़ते वक्त गले लिपटकर खूब रोए थे हिंदू-मुसलमान
हम पहले ही बता चुके हैं कि गाँव लोहारी राघो के हिंदू व मुसलमानों के बीच कभी कोई विवाद नहीं था। दोनोंं समुदाय के लोग आपस में मिल-जुलकर रहते थे। 103 वर्षीय बनवारी लाल सरोहा के मुताबिक जब ब्रिटिश सेना गाँव की तरफ बढ़ रही थी तो हमले से पहले लोहारी के मुसलमानों ने भी गाँव में रहने वाले हिंदू परिवारों को गाँव छोड़कर चले जाने के लिए कहा था। मुसलमान बिल्कुल नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से हिंदू परिवार भी बेमौत मारे जाएं।
हिंदुओं को भी अहसास हो गया था कि गाँव में कुछ बड़ा होने वाला है तथा अब कुछ दिन के लिए गाँव से बाहर जाने में ही भलाई है। वे बताते हैं कि जब लोहारी के हिंदू परिवार गाँव छोड़कर दूसरे गाँव में शरण लेने को जा रहे थे तो मुसलमानों संग गले लिपटकर खूब रोए थे। विदाई की इस वेला में हर आँख नम थी, और हर गला भरा हुआ। सच में आसमां भी रो उठा था उस दिन। हर निगाह एक-दूसरे को एक टक निहारे जा रही थी कि पता नहीं दोबारा कभी एक-दूसरे को देख भी पाएंगे या नहीं। यह आखिरी वक्त था जब लोहारी राघो के हिंदू-मुसलमानों ने एक-दूसरे को देखा था।

लोहारी टूटते ही गाँव में दो दिन तक हुई जमकर लूटपाट, खिड़की-दरवाजे तक उतार ले गए थे लुटेरे
ब्रिटिश सेना के अटैक के बाद चहुंओर लोहारी राघो के टूटने का ढ़िंढ़ोरा पिट गया और 20 अक्तूबर से शुरू हो गया गाँव के घरों में लूटपाट का सिलसिला। क्योंकि मुसलमानों के गाँव छोड़ते ही सेना भी यहाँ से जा चुकी थी। पहले से ही ताक(इंतजार) में  बैठे आस-पास के गाँवों के ग्रामीणों ने मुसलमानों व हिंदुओं के घरों पर धावा बोल दिया और सभी पशु गाय, भैंस, बैल आदि सब खोल ले गए। लुटेरों के हाथ जो भी पैसा, जेवर व कीमती सामान आया, सब लूट ले गए। ग्रामीण धन सिंह सैनी के मुताबिक उस समय पड़ौसी गाँवों के लुटेरों ने मुसलमानों के घरों के साथ-साथ हिंदुओं के घरों में भी डाका डाला था। क्योंकि ब्रिटिश सेना के डर से हिंदू परिवार भी लोहारी राघो छोड़कर दूसरे गाँवों में जा चुके थे। वे बताते हैं कि उस समय लोहारी राघो में लूटपाट का इस कदर नंगा नाच हुआ था कि लुटेरे घरों के खिड़कियां, दरवाजे तक उतार ले गए थे। 103 वर्षीय बनवारी लाल सरोहा के मुताबिक पड़ौसी गाँवों के लोग काफी दिनों से इंतजार में थे कि कब यहाँ के मुसलमान गाँव से छोड़कर जाएं और वे घरों में लूटपाट करें। 98 वर्षीय छोटो देवी जांगड़ा बताती हैं कि मुसलमानों को गाँव से निकालने के लिए ब्रिटिश सेना द्वारा जो एक्शन लिया गया था, उससे करीब दो माह पहले ही वे लोहारी से अपने मायका गाँव सिसाय चली गई थी। जब वे लौटकर लोहारी आई तो उनके घर में भी सब कुछ लुट चुका था। घर के बर्तन, संदूख, बिस्तर समेत सारा कीमती सामान गायब था। वे पूरे दावे के साथ बताती हैं कि उनके घर से लूटा गया सामान गाँव डाटा में देखा गया था और वहां लुटेरों द्वारा उसकी बोली लगाई गई थी। वे बताती हैं कि मुसलमानों के जाने के बाद लुटेरों ने लोहारी राघो में जमकर उत्पात मचाया था। बता दें कि छोटो देवी गाँव सिसाय निवासी उदय सिंह जांगड़ा की बेटी हैं। आजादी से दो साल पहले वर्ष 1945 में छोटो देवी का विवाह गाँव लोहारी राघो निवासी रामजीलाल के बेटे दीवान सिंह जांगड़ा के साथ हुआ था। इनकी दो बेटियां हैं एक अंगूरी जांगड़ा जो अध्यापिका हैं तथा वर्तमान में जिला जींद के गाँव रामराय में रह रही हैं जबकि दूसरी बेटी ओमपति का विवाह हिसार के गाँव माजरा में हुआ है। इनके पति दीवान सिंह जांगड़ा का विभाजन के कुछ वर्ष पश्चात ही निधन हो गया। बताते हैं कि ब्रिटिश सेना से पहले लोहारी राघो पर आस-पास के दर्जनभर गाँवों के लुटेरों द्वारा एकजुट होकर जितने भी हमले किए गए थे, सभी का मकसद मुसलमानों को यहाँ से खदेड़कर उनके घरों को लूटना था। लेकिन 8-10 गाँवों के हिंदुओं द्वारा 11 से ज्यादा हमले करने के बावजूद भी वे लोहारी राघो को तोड़ नहीं पाए थे। अंत में सेना को एक्शन लेना पड़ा था।

डाटा, बरवाला, भूना, डबवाली, फाजिल्का से मुल्तान के रास्ते बस्ती मलूक पहुंचे लोहारी राघो के मुसलमान
गाँव लोहारी राघो को छोड़ने के उपरांत यहां के मुसलमान पैदल चलते हुए गाँव डाटा,बधावड़ व ढाड के खेतों व पगडंडियों से होते हुए बरवाला पहुंचे। बताते हैं कि बीच रास्ते गाँव बधावड़ व ढाड के पास भी स्थानीय ग्रामीणों द्वारा लोहारी के मुसलमानों पर हमले किए गए तथा यहां 8-10 दिन रुकने के उपरांत भूना, डबवाली, फाजिल्का से होते हुए पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के जिला मुल्तान में जिला मुख्यालय से महज 35 किमी. दूर मुलतान-बहावलपुर  मुख्य मार्ग पर स्थित बस्ती मलूक पहुंचे। यहाँ हाईवे किनारे टिलों पर पाकिस्तान सरकार द्वारा बनाए कैंप में कई दिन रहने के उपरांत पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जाकर बस गए। बस्ती मलूक से कुछ ही दूरी पर स्थित है गाँव टिब्बा रावगढ़ जहाँ आज भी गाँव लोहारी राघो से पलायन करके जाने वाले सबसे ज्यादा मुसलमान रह रहे हैं। बताते हैं कि गाँव टिब्बा रावगढ़ को पाकिस्तान में लोहारी राघो वालों के गाँव के नाम से भी जाना जाता है। 75 साल पहले लोहारी राघो से पलायन करके गए करीब 300 परिवार आज भी टिब्बा रावगढ़ में रह रहे हैं।और खास बात यह कि इस गाँव को आज भी पाकिस्तान में ‘लोहारी वालों’ के गाँव के नाम से जाना जाता है।  

लोहारी राघो। तस्वीर में दिखाई दे रही यह मुस्लिमों के जमाने की वही ईदगाह है जिस पर अंग्रेजों ने कभी जमकर जुल्म ढ़हाया था। अक्तूबर 1947 में अंग्रेजों ने इस ईदगाह पर हमला कर गाँव के अनेक मुसलमानों को मौत के घाट उतारा था।  तस्वीर : प्रवीन खटक  

नरसंहार की गवाह है ईदगाह, आज भी हैं अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के निशान
वर्तमान में गाँव लोहारी राघो के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में स्थित ईदगाह इस नरसंहार का सबसे बड़ा गवाह है। इस ईदगाह की दीवारों पर अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के कुछ निशान आज भी साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं। कुछ वर्ष पहले तक ईदगाह की दीवारों पर गोलियों के सैकड़ों निशान मौजूद थे। गोलियों के सबसे ज्यादा निशान ईदगाह के मुख्य द्वार वाली दीवार पर सामने यानि पूर्व की तरफ थे। वक्त के साथ ये दीवारें जर्जर हुई तो मुरम्मत के साथ-साथ ऐतिहासिक खूनी यादें भी दफन होती चली गई। वर्तमान में इस ईदगाह की सिर्फ एक दीवार ही शेष बची है। मुख्य द्वार वाली दीवार को ढहाकर विद्यालय के कमरों का निर्माण किया गया है। इसके अलावा उत्तर व दक्षिण दिशा की तरफ दोनों दीवारों को भी ढ़हा दिया गया है। गाँव में जोहड़ किनारे जहां आज अशोक सिंदवानी का मकान है, इसके ठीक पीछे स्थित एक पुरानी दीवार पर भी गोलियों के निशान कुछ साल पहले तक मौजूद थे। लेकिन यह दीवार भी करीब 4-5 वर्ष पूर्व ढह चुकी है। इसके अलावा भी गाँव के अंदर कई प्राचीन दीवारों पर अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के निशान कुछ साल पहले तक देखने को मिलते थे लेकिन अब वे नहीं हैं क्योंकि ग्रामीणों ने उन दीवारों को ढ़हाकर नए भवनों का निर्माण कर लिया है। अंग्रेजों द्वारा गाँव के भीतर सबसे ज्यादा गोलियां गीगो बनिया के नोहरे व उसके आस-पास की दीवारों व घरों पर बरसाई गई थी। क्योंकि इदगाह में गोलियां चलने के उपरांत गाँव में भगदड़ चुकी थी तथा ढ़ेर सारे मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए भागकर गीगो बनिया के नोहरे में छिप गए थे। बताते हैं कि उस समय गीगो बनिया के घर का नोहरा पूरे लोहारी राघो में सबसे बड़ा था। इस नोहरे में सैकड़ों मुसलमानों ने शरण ली थी और उनमें से अधिकतर मारे गए। गीगो बनिया का नोहरा राजेंद्र लिखा के मकान के सामने मौजूद था। पूरी गली में जितने भी मकान हैं, और दूसरी गली में जहाँ डॉक्टर राजू गाबा का मकान है, यहाँ तक सारा एक ही मकान था जो गीगो बनिया का बताया जाता है। सिर्फ एक भीतरी दीवार को छोड़कर वर्तमान में सभी पुरानी खूनी दीवारें ढ़ह चुकी हैं। यहाँ फिलहाल कोई गोली का निशान मौजूद नहीं है क्योंकि यह दीवार मकान के भीतरी भाग में स्थित थी। सामने की दीवारें जिस पर गोलियों के निशान मौजूद थे, उन्हें कुछ साल पहले ही ढ़हाकर नई दीवारों का निर्माण कर दिया गया है।
 
लोहारी राघो। राजेंद्र लिखा के घर के सामने स्थित गीगो बनिया के मकान का कुछ हिस्सा आज भी दिखाई दे रहा है जिसके नोहरे मेें उस समय सैकड़ों मुसलमान छिपे थे। अंग्रेजों ने इस घर पर जमकर गोले बरसाए थे तथा यहाँ भी ढ़ेरों मुसलमानों की जान गई थी। इस मकान की जिन सामने वाली दीवारों पर गोलियों के निशान थे, ग्रामीणों ने उन्हें ढ़हाकर अब नई दीवारों का निर्माण कर लिया है।    तस्वीर : प्रवीन कम्बोज
  
जाते-जाते भी भाईचारे की गजब मिसाल पेश कर गए थे मुसलमान, पढ़ें दिल को छू देने वाली कहानी

गाँव लोहारी राघो के हिंदू व मुसलमानों के बीच काफी सौहार्द था तथा वे हमेशा ही प्यार, मोहब्बत से रहते थे। अंग्रेजों द्वारा किए गए हमले के उपरांत गाँव छोड़ते वक्त भी लोहारी राघो के मुसलमानों ने भाईचारे की ऐसी गजब मिसाल पेश की जिससे ग्रामीण आज भी उनके कायल हैं। 98 वर्षीय छोटो देवी जांगड़ा बताती हैं कि विभाजन से पहले गाँव लोहारी राघो में एक गुलाब बनिया का मकान था। गुलाब बनिया के निधन के उपरांत उनकी पत्नी धापां अपनी दो जवान बेटियों के साथ अपने घर में रह रही थी। गुलाब बनिया का मकान लोहारी राघो में ठीक उस जगह पर था जहाँ आज पृथ्वी जांगड़ा का मकान है। इसके साथ ही गीगो बनिया का मकान था। छोटो देवी जांगड़ा ने बताया कि जिस दिन लोहारी राघो पर अंग्रेजी सेना ने हमला किया था तो पूरा गाँव सुनसान हो चुका था। क्योंकि हिंदू तो सेना के अटैक के भय से पहले ही गाँव छोड़कर अन्य गाँवों में शरण ले चुके थे। मुसलमान अपने भरे घर छोड़कर पाकिस्तान जा रहे थे। इस दौरान आस-पास के गाँवों के लुटेरों की नजर वीरान हो चुके गाँव लोहारी राघो पर थी क्योंकि वे घरों को लूटने की फिराक में थे। उस दिन हिंदू परिवारों में सिर्फ एक धापां देवी ही अपनी जवान बेटियों के साथ गाँव में मौजूद थी। जब मुसलमानों को इस बाबत पता चला कि गाँव में धापां देवी अकेली हैं और उनके घर में दो जवान बेटियां भी हैं तो उन्होंने किसी अनहोनी का अंदेशा जताते हुए उन्हें भी अपने साथ कबीले में ले लिया तथा बरवाला तक अपने साथ ले गए। वहां जाकर मुसलमानों ने धापां देवी व उनकी दोनों बेटियों को उनके रिश्तेदार के घर सुरक्षित छोड़ दिया। इस तरह मुसलमानों ने धापां देवी व उनकी बेटियों की जान व इज्जत बचाई। क्योंकि मुसलमानों के जाने के बाद यदि वे अकेली गाँव में रहती तो उनके साथ कुछ भी अनहोनी हो सकती थी। क्योंकि हम पहले ही बता चुके हैं कि मुसलमानों के गाँव छोड़ने के उपरांत दो दिन तक गाँव में जमकर लूटपाट हुई थी। 

 जानें, आज कैसे मेवात बन चुका होता लोहारी राघो का इलाका

यहाँ यह बताना भी जरुरी है कि विभाजन के दौर में पूरे हरियाणा में लोहारी राघो ही एकमात्र ऐसा गाँव था जिसे खाली करवाने के लिए स्वंय ब्रिटिश सेना को दिल्ली से आकर मोर्चा संभालना पड़ा था। जरा कल्पना कीजिए यदि ब्रिटिश सेना उस समय मुसलमानों को न खदेड़ती तो आज यहाँ क्या होता। जिला हिसार के गाँव लोहारी राघो व मोठ समेत आस-पास के कई गाँव अब तक मुस्लिम बाहुल्य गाँव बन चुके होते। 75 साल बाद आज यह इलाका पूरी तरह से मेवात बन चुका होता और यहाँ का इतिहास, भूगोल, कल्चर, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान सब अलग होता। यहाँ रहने वाले मुसलमानों का इस इलाके को मिनी पाकिस्तान बनाने का सपना भी अब तक पूरा हो चुका होता। सरकारी कर्मचारी यहाँ नौकरी करने से कतराते। हरियाणा सरकार को मेवात की मानिंद यहाँ के लिए भी अलग से नौकरी के पद सर्जित करने पड़ते। यहाँ काम करने वाले कर्मचारियों को मेवात की मानिंद सैलरी पैकेज व सुविधाएं भी ज्यादा देनी पड़ती। पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए जो अरोड़ा, कम्बोज, खत्री व सिख समुदाय के परिवार आज इन गाँवों में आबाद हैं, वे कहीं और होते क्योंकि उस समय सरकार ने सिर्फ उन्हीं गाँवों-शहरों में विस्थापितों को मकान,खेत अलाट किए थे जो मुस्लिम बाहुल्य थे तथा मुसलमान वहाँ से छोड़कर पाकिस्तान जा चुके थे। लोहारी राघो अब तक 95 फीसद मुस्लिम गाँव बन चुका होता। क्योंकि विभाजन से पहले यहाँ केवल 25-30 फीसद हिंदू परिवार ही आबाद थे।  जी हाँ! बिल्कुल ठीक पढ़ा आपने। वर्ष 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के उपरांत उपजे हालातों को यदि ब्रिटिश सेना ने उस समय नजरअंदाज कर दिया होता तो आज हरियाणा के जिला हिसार में भी एक और मेवात होता। आज यहाँ का इतिहास कुछ ओर होता तो भूगोल, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान व कल्चर कुछ ओर।


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