लोहारी राघो : सिंधु सभ्यता का 'BIG बाजार'
आधुनिक लोहारी राघो का इतिहास, भाग-2
सबसे पुरानी व पहली मानव सभ्यता के अवशेषों पर आबाद हड़प्पाकालीन ऐतिहासिक गाँव लोहारी राघो में दुनियाभर के इतिहासकारों द्वारा अब तक दो बार की गई खुदाई में मिले प्रमाणों से पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि यह गाँव सिंधु सभ्यता के समय का सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र था। गाँव लोहारी राघो को सिंधु सभ्यता का ‘BIG बाजार’ भी कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। राजधानी नई दिल्ली से 200 किमी, हिसार जिला मुख्यालय से 55 किमी. तथा उपमंडल हांसी से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित लोहारी राघो का नाम आज देश के प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों में शुमार हो चुका है। लोहारी राघो के लोगों को इस बात का गर्व है कि वे दुनिया की सबसे प्राचीन व पहली मानव सभ्यता (सिंधु सभ्यता) के अवशेषों पर आबाद हैं। यहाँ के ग्रामीणों ने पुरात्तन काल से अब तक कृषि, पशुपालन, व्यापार, शिक्षा, खेल, राजनीति से लेकर पराक्रम और शौर्य के कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इससे पहले पुरात्तन लोहारी राघो में आपने पढ़ा कि यह गाँव 5 हजार साल पूर्व किस तरह से आबाद हुआ और उस समय यहाँ के लोगों का रहन-सहन, खान-पान, काम-काज क्या था। अब आधुनिक लोहारी राघो (लोहारी राघो इतिहास भाग-2) में पढ़ें सिंधु सभ्यता के विनाश के बाद गाँव लोहारी राघो के दोबारा से अस्तित्व में आने की पूरी कहानी। गाँव का कैसे पड़ा लोहारी राघो नाम और देखते ही देखते कैसे बन गया मुस्लिम बाहुल्य गाँव ? 17वीं शताब्दी में लोहारी राघो की धरा पर अवतार लेने वाले फकीर बख्शु शाह ने क्या दिखाए चमत्कार ? वर्ष 1947 में भारत-पाक विभाजन के उपरांत यहाँ क्या आया बदलाव तथा देश-प्रदेश व दुनिया में आज क्या है लोहारी राघो की पहचान? बता रहे हैं विलेज ईरा के मुख्य संपदाक संदीप कम्बोज
2500 ई. पू. सिंधु सभ्यता के साथ ही हो गया था विनाश
इतिहासकारों की मानें तो लगभग 2500 ई. पू. सिंधु सभ्यता का संपूर्ण विनाश हो जाने के साथ ही इसकी जद में आने वाले सभी गाँव-शहर नष्ट और ध्वस्त हो गए थे। चूंकि लोहारी राघो भी सिंधु सभ्यता का ही गाँव था तो यहाँ का अस्तित्व भी इस समूची सभ्यता के साथ ही खत्म हो गया। इतिहासकारों ने इस सभ्यता के विनाश के अलग-अलग कारण बताए हैं। सिंधु नदी में भयंकर बाढ़, नदी द्वारा मार्ग बदलकर सिंधु क्षेत्र को रेगिस्तान बना देना, जलवायु में असाधारण परिवर्तन, मौसमी हवाओं का रुख बदलना, वर्षा कम होना और धीरे-धीरे टीलों में ढ़क जाना। सिंधु सभ्यता के पतन के संबंध में दुनिया के प्रख्यात विद्वान(विचारक) मार्शल एस. आर. राव, मैकी तथा एम. आर. साहनी की मान्यता है कि वस्तुत: दुनिया की यह सबसे पुरातन मानव सभ्यता बाढ़ के कारण ही नष्ट हुई है। वहीं एक अन्य प्रख्यात विद्वान(विचारक) आरेल स्ट्रेन और ए.एन.घोष ने इसके पीछे जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार बताया है। जी. एफ. हेल्स के मुताबिक इस सभ्यता का विनाश घग्गर के बहाव में परिवर्तन के कारण हुआ है। इस बाबत इतिहासकारों के अपने-अपने तर्क हैं लेकिन इतना तो सत्य है कि सिंधु सभ्यता के समय गाँव लोहारी राघो का भी नामो-निशान मिट गया था। गाँव लोहारी राघो में इतिहासकारों द्वारा की गई खुदाई के दौरान मिले अवशेषों से इस बात के पुख्ता प्रमाण मिल चुके हैं।
लगभग 15वीं-16वीं शताब्दी में पुन: अस्तित्व में आया आधुनिक लोहारी राघो
सिंधु सभ्यता के विनाश के बाद करीब 5 हजार साल तक यह इलाका मानवीय गतिविधियों से महरुम रहा। नतीजन इलाके ने घनघोर जंगल का रुप ले लिया। जहाँ आज गाँव आबाद है, ठीक यही जगह कभी खतरनाक भयावह जंगली इलाका था। इस क्षेत्र में घने बरगद के पेड़, झाड़ियां व जंगली जानवरों की भरमार थी। आज से एक हजार साल पुराना भी ऐसा कोई प्रमाण व अवशेष नहीं मिल पाया है जो यह साबित कर सके कि यहाँ कभी कोई मानव हस्तक्षेप रहा हो क्योंकि पुरात्तत्व विभाग द्वारा की गई गई खुदाई में मिले अवशेष करीब 4 हजार साल पुराने बताए जा रहे हैं। इसके अलावा ग्रामीणों द्वारा अपने घर, खेत, संस्थान आदि में अलग-अलग मकसद से की गई खुदाई में मिले सिक्के, धातुओं के टुकड़े व अन्य वस्तुएं भी 300-400 साल से ज्यादा पुरानी नहीं हैं। एक अनुमान के मुताबिक हड़प्पा सभ्यता के नष्ट हो जाने के बाद वर्तमान गाँव लोहारी राघो आज से करीब 400 साल पूर्व यानि वर्ष 1500 व 1600 ई. में अस्तित्व में आया है। अब सवाल उठता है कि यह गाँव दोबारा से कैसे बसा, किन लोगों ने इसे बसाया और वे कहाँ से आए ? इसका अभी तक कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल पाया है। इस संबंध में गाँव के वृद्धों के अपने-अपने तर्क हैं। इसमें विरोधाभास भी हो सकता है। कुछ लोगों का कहना है कि यह गाँव मुस्लिमों द्वारा बसाया गया था तो कुछ इसे हिन्दुओं द्वारा बसाया गाँव बताते हैं। वहीं वर्ष 1947 में विभाजन के उपरांत लोहारी राघो से पाकिस्तान के मुल्तान स्थित डेरा मुहाम्मदी में जाकर रहने वाले वृद्ध मुहम्मद सुलेमान का भी यही दावा है कि लोहारी राघो को मुस्लिमों ने ही बसाया था।
एक दावा यह भी : जैसलमेर से पलायन करके आए हिंदुओं ने बसाया था लोहारी राघो
लोहारी राघो मुस्लिम बाहुल्य गाँव रहा है। लेकिन कुछ लोग इसे हिंदुओं द्वारा बसाया गया गाँव मानते हैं। (Did-Hindus-settle-the-village-Lohari-Ragho-after-all-what-is-the-whole-truth? ) एक दावे के अनुसार आधुनिक लोहारी राघो के दोबारा आबाद होने का समय 15 वीं-16वीं शताब्दी बताया जा रहा है। दावा है कि हिंदू नाई समाज के लोगों ने इसे बसाया जिनके वंशज आज भी इस गाँव में मौजूद हैं। गाँव में रहने वाले भट्टी गोत्र के वंशज राजकुमार भट्टी के दावे को यदि सच मान लिया जाए तो आधुनिक लोहारी राघो को हिंदुओं ने बसाया था न कि मुसलमानों ने। मुस्लिम परिवार बाद में यहाँ आकर बसे थे। राजकुमार भट्टी की मानें तो लोहारी राघो के दोबारा आबाद होने की कहानी जून 1576 में राजस्थान में हुए हल्दीघाटी युद्ध के बाद से शुरू होती है। राजकुमार भट्टी का दावा है कि वे आधुनिक लोहारी राघो के बसने की कहानी पीढ़ी दर पीढ़ी अपने बुजुर्गों से सुनते आए हैं। उनके पिता गुगन राम भाटी ने उन्हें इस बाबत बताया था और उनके पिता को पूर्व के वंशजों से यह जानकारी मिली। वे बताते हैं कि हल्दीघाटी की लड़ाई में सैकड़ों मौतों के बाद कोहराम मचा था। इस युद्ध के बाद अकबर की मुगल सेना ने इलाके में हिन्दुओं पर अत्याचार करने शुरू कर दिए थे। तो इसी भय के चलते उदयपुर, जोधपुर, जैसलमेर व बाड़मेर समेत राजस्थान के अनेक इलाकों से लाखों लोगों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में पलायन कर लिया था। यह पलायन हल्दीघाटी युद्ध के बाद अगले 10-20 साल तक जारी रहा। इस दौरान जैसलमेर से भाटी व भट्टी गौत्र के लोगों ने भी बड़ी तादात में पलायन किया था। लोहारी राघो को बसाने वाले भट्टी गौत्र के लोग भी जैसलमेर से इसी कालखंड के दौरान आए थे। राजकुमार भट्टी के दावे के अनुसार जैसलमेर से पलायन करने के उपरांत भट्टी गौत्र के लोगों यानि उनके पूर्वजों ने सबसे पहले जहाँ आज गौशाला डेरी है, इस जगह व गाँव मसूदपुर के मध्य स्थित गाँव थरवा खेड़ा में डेरा डाला। कई सालों तक भट्टी गौत्र के लोग यहाँ आबाद रहे। कुछ साल बाद यहाँ से करीब 6 किमी दूर उत्तर दिशा की और पलायन कर लिया और जहाँ आज गाँव लोहारी राघो आबाद है, यहाँ आकर ठहर गए। दावे के अनुसार भट्टी गौत्र के परिवारों ने उत्तर दिशा में घने बरगद के पेड़ों के नीचे डेरा डाल लिया। ये परिवार सालों तक इन बरगद के पेड़ों के नीचे ही आबाद रहे और धीरे-धीरे पेड़ों को काटकर इसी जगह पर अपना ठिकाना बना लिया। धीरे-धीरे इस जगह ने बस्ती का रुप ले लिया और फिर विशाल गाँव का। तस्वीर में दिखाई दे रहा यह ऐतिहासिक दरवाजा ठीक उसी जगह पर स्थित है जहाँ से गाँव आबाद होना शुरू हुआ था। गाँव भले ही 400 से 450 साल पहले आबाद हुआ हो लेकिन इस ऐतिहासिक दरवाजे का निर्माण लगभग 125 साल पहले मुसलमानों के समय ही हुआ है और इसके निर्माण में चूना पत्थर का इस्तेमाल किया गया है। दरवाजे की जर्जर हालत के कारण ग्रामीणों द्वारा इसकी मुरम्मत की गई है लेकिन आज भी इस दरवाजे में कहीं-कहीं चूना पत्थर दिखाई दे रहा है जो इसके पुरात्तन होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। आजादी से पूर्व गाँव में 70 फीसद से भी अधिक मुस्लिम आबादी होने के पीछे राजकुमार भट्टी का तर्क है कि जब उनके बुजुर्गों ने इस जगह को आबाद किया तो प्रारंभ में कुछ चुनिंदा मुस्लिम परिवारों ने ही यहाँ आकर शरण ली थी। यहाँ मुस्लिमों का वर्चस्व बढ़ाने व इसे मुस्लिम गाँव बनाने के लिए यहाँ के मुसलमानों ने आस-पास व दूर-दराज से भी सैकड़ों मुस्लिम परिवारों को यहां आबाद करवाया जिसका नतीजा यह हुआ कि गाँव में मुसलमानों की आबादी बढ़ती गई और आगे चलकर यह मुस्लिम बाहुल्य गाँव कहलाया।
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एक
शताब्दी से भी पुराना यही वह ऐतिहासिक दरवाजा है जिसके भीतर नाई समाज के
लोग आबाद हैं। दावा है कि लोहारी राघो सर्वप्रथम इसी जगह से आबाद होना शुरू
हुआ और धीरे-धीरे दक्षिण, पूर्व व पश्चिम की तरफ फैलता गया। गाँव भले ही
करीब 450 साल पहले आबाद हुआ है लेकिन यह ऐतिहासिक दरवाजा करीब 125 वर्ष पहले अस्तित्व में आया। तस्वीर : प्रवीन खटक |
इस तरह पड़ा ‘लोहारी राघो’ नाम
लोहारी राघो से विस्थापित होकर पाकिस्तान के पंजाब में मुल्तान स्थित डेरा मुहाम्मदी में रहने वाले 98 वर्षीय मुहम्मद सुलेमान की मानें तो गाँव का नाम मुसलमान लुहारों व रांगड़ों के नाम पर लोहारी राघो पड़ा था। वे बताते हैं कि वर्ष 1947 से पहले इस गाँव में करीब 70 फीसद आबादी मुसलमानों की थी बाकि 30 फीसद परिवार हिंदू थे। गाँव में सबसे ज्यादा दबदबा मुसलमान लोहारों का था जिनका मुख्य पेशा खेती के औजार व सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक हथियार आदि बनाना था। मुसलमान लोहारों के कारण गाँव का नाम लोहारी पड़ गया। बाद में यहाँ दूसरे गाँवों से आए रांगड़ मुसलमानों ने शरण ली और अपना ठिकाना बना लिया। लेकिन लोहार मुसलमान नहीं चाहते थे कि रांगड़ मुसलमान भी यहाँ रहें। वे रांगड़ मुसलमानों को गाँव से खदेड़ना चाहते थे। उस समय यहाँ बब्बु साहब का राज था तथा सभी ग्रामीण उसका फैसला मानते थे। उससे लोहारों व रांगड़ मुसलमानों के बीच रोज-रोज के झगड़ों को देखा नहीं गया। बब्बु साहब ने रांगड़ मुसलमानों को भी यहां निवास करने का अधिकार दे दिया। इस तरह से रांगड़ मुसलमान भी यहाँ बस गए और तबसे ही गाँव को लोहारी राघो कहा जाने लगा। गाँव लोहारी राघो निवासी 93 वर्षीय उजाला राम संभरवाल बताते हैं कि आजादी से पहले गाँव लोहारी राघो में करीब 60-70 हिंदू परिवार रह रहे थे जिनमें करीब 20-25 परिवार एससी समाज, 15-20 परिवार बनिया समाज, 10-12 परिवार धानक समाज, 10-15 परिवार सैनी समाज, 5-7 परिवार जांगड़ा समाज तथा 4-5 परिवार नाई समाज तथा 2-3 परिवार रोहिला समाज के थे। वर्ष 1947 में भारत-पाक विभाजन के समय लोहारी राघो में रहने वाले मुस्लिम परिवार पाकिस्तान चले गए जबकि पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए अरोड़ा, सिख व कम्बोज समाज के सैकड़ों परिवारों ने यहाँ शरण ली। ऐसा पहली बार था जब लोहारी राघो पूरी तरह से हिंदू गाँव बना था और यहाँ एक भी मुस्लिम परिवार शेष नहीं बचा था।
500 साल से भी पुराना ऐतिहासिक रोघी खाप चबुतरा
लोहारी राघो में पाँच शताब्दी से भी ज्यादा समय से न केवल 24 गाँवों की रोघी खाप का मुख्यालय रहा है बल्कि रोघी खाप का ऐतिहासिक चबुतरा भी यहीं विद्यमान था। पड़ोसी गाँव डाटा व मसूदपुर के कुछ वृद्धों का मानना है कि आज से करीब 300-400 साल पहले तक गाँव लोहारी राघो में कुछ जाट परिवार भी आबाद थे। जिनमें कुछ हिंदु जाट तो कुछ मुस्लिम जाट थे। बताया जाता है कि वर्ष 1987 तक भी गाँव लोहारी राघो में रोघी खाप का ऐतिहासिक चबुतरा मौजूद था। यह ऐतिहासिक चबुतरा हांसी वाले जोहड़ में पूर्व की तरफ एक महलनुमा भवन में बनाया गया था लेकिन आज इसका नामो-निशान भी खत्म हो गया है। बताते हैं कि आजादी से पहले जब यहाँ रोघी खाप की पंचायत का आयोजन होता था तो मुसलमानों के लिए हुक्का-पानी व भोजन का प्रबंध अलग होता था और हिंदुओं के लिए अलग। आजादी के बाद भी कई सालों तक हांसी वाले जोहड़ किनारे स्थित विशाल बरगद के पेड़ के नीचे रोघी खाप की पंचायत का आयोजन होता रहा है। पड़ोसी गाँव मसूदपुर का इतिहास लिखने वाले लेखक ज्ञान चंद आर्य बताते हैं कि आजादी से पहले गाँव लोहारी राघो में जाट परिवारों की संख्या काफी थी लेकिन ज्यादातर हिंदू जाट, मुसलमानों के प्रकोप के कारण या तो मुसलमान बन गए थे या फिर लोहारी राघो को छोड़कर अन्य गाँवों में चले गए।
चार पानों में बंटा था लोहारी राघो, मिल-जुलकर रहते थे हिंदू-मुस्लिम परिवार
103 वर्षीय बनवारी लाल सरोहा के मुताबिक आजादी से पहले गाँव लोहारी राघो चार पानों में बंटा था। स्यहण पाना, फतेहदान पाना, गाल पाना और पाइया पाना। गाँव के पश्चिम दिशा में स्थित गाल पाना में सैनी समाज के परिवार आबाद थे जबकि बाकि सभी पानों में हिंदू व मुस्लिम परिवार मिल-जुलकर प्यार
मोहब्बत से रहते थे। होली, दीवाली हो या ईद, दोनों समुदायों के लोग
मिल-जुलकर हर्षोल्लास से मनाते थे। शादी-ब्याह समेत हर खुशी व गम के अवसर
पर भी दोनों समुदाय के लोग एक साथ नजर आते थे। गाँव के हिंदू व मुसलमानों
के बीच किसी प्रकार का कोई विवाद या दंगा-फसाद कभी नहीं हुआ था।
17वीं शताब्दी में पीर बख्शू शाह ने बजाया रुहानियत का डंका
आज से करीब 300 साल पहले 17वीं शताब्दी में फकीर बख्शू शाह ने लोहारी राघो में अवतार लेकर आसपास के ग्रामीण इलाकों में अल्लाह, राम के नाम का डंका बजाया और लोगों में प्रेम, प्यार व भाईचारे की भावना पैदा की। मजहब से खुद मुस्लिम होते हुए भी उन्होंने सभी धर्मों को बराबर का सम्मान दिया और हिंदू धर्म से प्रभावित होकर 17 साल तक हिंदू साधुओं संग तपस्या की। तपस्या से लौटने के उपरांत बाबा बख्शू शाह ने धर्म, जात, मजहब के फेर में उलझे मानव समाज को रूहानियत, सूफियत से वास्तविकता का परिचय कराकर इंसानियत का पाठ पढ़ाया। गाँव लोहारी राघो के उत्तर पूर्व में स्थित बडे-बड़े मिट्टी के टीलों व घने बीहड़(भयानक जंगल)के बीच(जहाँ आज बाबा बख्शू शाह का समाधी स्थल बना है) डेरा डाला व लोगों को सच की राह पर चलना सिखाते हुए इंसानियत का रास्ता दिखलाया। सूफी पीर-फकीर बाबा बख्शू शाह ने 17वीं शताब्दी(लगभग 1735-40) में गाँव लोहारी राघो के जाने-माने जमींदार जुल्फकार खान के घर अवतार लिया था। बताते हैं कि जन्म के समय से ही बाबा बख्शू शाह के चेहरे पर आलौकिक तेज था। हर कोई इन्हें बेअथाह प्यार व सत्कार से नवाजता। गाँव में 4 मुरब्बे से भी अधिक जमीन हाने के कारण घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। इसलिए बख्शू शाह बचपन से ही गरीब असहायों के प्रति अति शुभचिंतक थे। जब वे 5-6 साल के थे तो घर-परिवार छोड़कर गाँव बधावड़ से आए हिंदू फकीरों के साथ रहकर परमपिता परमात्मा की भक्ति करने लगे तथा फिर 17 साल बाद बालक बख्शू से फकीर बख्शू शाह बनकर लोहारी लौटे। बाबा बख्शू शाह ने सभी को सर्वधर्म सद्भाव के साथ-साथ रूहानियत व इंसानियत की शिक्षा दी तथा अपने जीवनकाल में अनेक चमत्कार दिखाए। वर्ष 1807 में रमजान के पाक-पवित्र माह के 18वें दिन यानि 18वें रोजे वाले दिन बाबा बख्शू शाह ज्योति जोत समा गए। आज बाबा बख्शू शाह की तपस्थली वाली जगह(समाधी स्थल वाला स्थान) पर ही बाबा बख्शू शाह की कब्र शरीफ बनाई गई है। बाबा बख्शू शाह के बेटे चांद खां की समाधी भी बाबा बख्शू शाह की समाधी के बाइं और बनाई गई है।
1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम : रांगड़ व लुहार मुसलमानों ने गाँव के बाहर से ही खदेड़ दी थी अंग्रेज सेना
लोहारी राघो को इस बात का गर्व है कि यहां प्राचीन काल से ही शौर्य, राष्ट्रीय प्रेम, बलिदान व देश पर मर मिटने की उच्च परंपराएं रही हैं। यहाँ के लोगों ने खेती-किसानी से लेकर रणक्षेत्र तक अपने पराक्रम और शौर्य के अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं। लोहारी राघो अंग्रेजों के नादिरशाही कारनामों का भी साक्षी रहा है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लोहारी राघो के ग्रामीणों का योगदान अवीस्मरणीय है। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों ने जब इस गांव में घुसने का प्रयास किया था तो इस गांव के जांबाज रांगड़ तथा लुहार मुसलमानों ने अपने परंपरागत हथियारों भाला, जेली, बर्छी, तलवार, कुल्हाड़ी व गंडासी आदि से ब्रिटिश सैनिकों का डटकर मुकाबला किया था। ग्रामीणों ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध अपना मोर्चा खोल दिया था जिस कारण उन्हें अंग्रेजों की यातनाओं और बर्बरता का शिकार होना पड़ा। रांगड़ों व लुहार मुसलमानों के हौंसले के आगे अंग्रेजों ने हथियार डाल दिए थे तथा उन्हें गांव के बाहर से ही वापिस लौटना पड़ा था।
ब्रिटिश सेना भी नहीं लांघ पाई थी बाबा बख्शू शाह द्वारा लोहारी के चारों तरफ खींची गई लक्ष्मण रेखा
17वीं शताब्दी में लोहारी राघो की धरती पर अवतार लेकर धर्म, अध्यात्म, मानवता भलाई व रूहानियत का डंका बजाने वाले पीर बाबा बख्शू शाह ने अपने जीवन काल में ऐसे-ऐसे करिश्मे दिखाए जिन्हें सुनकर आप भी हैरान रह जाएंगे। बाबा बख्शू शाह के परिजनों से मिली जानकारी मुताबिक लोहारी राघो पर अंग्रेजी सेना ने कई बार धावा बोला था लेकिन यहाँ के वीर योद्धाओं ने उनका डटकर मुकाबला किया। ऐसे ही 17 वीं शताब्दी में एक बार अंग्रेजी सेना लोहारी राघो पर घेरा डालने के लिए गाँव की तरफ बढ़ रही थी। जब इस बारे बाबा बख्शू शाह को पता चला तो उन्होंने गाँव के चारों तरफ एक लकीर(लक्ष्मण रेखा) खींच दी थी और वचन किए थे कि लोहारी राघो का कोई भी बाशिंदा इस लकीर को लांघकर दूसरी तरफ न जाए लेकिन बताते हैं कि इस दौरान एक मलंग (मंदबुद्धि) व्यक्ति आ टपका और ग्रामीणों को लकीर के उस तरफ जाने के लिए उकसाने लगा। काफी लोग उसके बहकावे में आ गए और लकीर (लक्ष्मण रेखा) लांघ गए। इस अंग्रेजी हमले में लोहारी राघो के अनगिनत लोग मारे गए थे। मृतकों में सभी लक्ष्मण रेखा लांघने वाले ही लोग थे। इस खून-खराबे के बाद ग्रामीणों को उकसाने वाला वह मलंग(मंदबुद्धि) भी दोबारा कभी नजर नहीं आया।
जब लोहारी राघो के बहादुर जांबाज इमाम अली की जान के दुश्मन बन बैठे थे अंग्रेज
- ब्रिटिश पुलिस अफसर की धुनाई कर पुलिस की नौकरी छोड़ गाँव लौट आए थे इमाम अली
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए प्रत्येक आन्दोलन में लोहारी राघो के लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और अपने अजीज देश भारत को आजाद कराने के एक लम्बे और कड़े संघर्ष में न केवल बहादुरी की मिसाल पेश की बल्कि दिल दहलाने वाली यातनाएं भी झेली। गोरे अंग्रेज गाँव लोहारी राघो के एक बहादुर इमाम अली की जान के दुश्मन बन बैठे थे तथा उन्हें दबोचने के लिए गाँव में कई बार दबिश दी। वर्ष 1894 में जन्मे इमाम अली लोहारी राघो के सूफी फकीर बाबा बख्शू शाह की चौथी पीढ़ी से थे यानि की बाबा बख्शु शाह के पड़पोते। गाँव लोहारी राघो में इनका मकान आज जहां रामस्वरुप वैद्य का घर है,ठीक उनके घर के सामने आस-पास ही था। वर्ष 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय बने हालात के मद्देनजर न चाहते हुए भी इमाम अली को परिवार समेत गाँव लोहारी राघो को छोड़कर जाना पड़ा। लोहारी राघो को छोड़कर जाने के समय वर्ष 1947 में इमाम अली की आयु 53 वर्ष थी। ये वही इमाम अली हैं जब भारतवर्ष में रहते हुए इन्होंने ब्रिटिश पुलिस की नौकरी ज्वाइन कर ली थी लेकिन अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किए जा रहे जुल्म इनसे देखे नहीं गए व एक अंग्रेज पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी की धुनाई कर नौकरी छोड़कर वापिस लोहारी राघो भाग आए। अंग्रेजों से दुश्मनी इन्हें इस कदर महंगी पड़ी की गोरे इनकी जान के दुश्मन बन बैठे व इन्हें गिरफ्तार करने के लिए गाँव लोहारी राघो में कई बार दबिश दी। एक बार तो अंग्रेज पुलिस ने गोलियां भी चला दी थी जिनमें से एक गोली इनकी जांघ पर लगी जिसका निशान उनके मरते दम तक मौजूद था। 10 मई 2009 को 115 वर्ष की आयु में इमाम अली का देहांत हो गया। आज इमाम अली के बेटे असगर अली(बाबा बख्शू शाह की पांचवीं पीढ़ी)व पोते कामरान राव व इमरान अली(बाबा बख्शू शाह की छठी पीढ़ी) पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के जिला मुल्तान स्थित गाँव टिब्बा रावगढ़ में रहे रहे हैं।
मुसलमानों से खौफजदा अंग्रेजों ने 18वीं शताब्दी में लोहारी राघो में खोल दी थी पुलिस चौकी
लोहारी राघो के मुसलमानों से अंग्रेज पुलिस व प्रशासन के अफसर इतना ज्यादा तंग आ चुके थे कि उन्होंने गाँव में पुलिस चौकी बनवा दी जो कि थाना नारनौंद के अंतर्गत आती थी। पुलिस चौकी खुलने का सही समय तो पता नहीं चल पाया है लेकिन बताया जा रहा है कि संभवत: 18वीं शताब्दी के अंत(1890-1900) में या फिर 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में पुलिस चौकी खोली गई होगी क्योंकि अंग्रेजों द्वारा नारनौंद पुलिस थाना भी वर्ष 1880 में ही खोला गया था। पुलिस चौकी से संबंधित रिकॉर्ड खंगाला गया तो सबसे बड़ी समस्या भाषा की आई। यह सारा रिकॉर्ड फारसी लिपी में लिखा गया है जिसे पढ़ने के लिए पुलिस के पास कोई अनुवादक नहीं है। लेकिन यह बिल्कुल सच है कि गाँव लोहारी राघो में अंग्रेजों ने पुलिस चौकी खुलवाई थी। जिसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है कि ब्रिटिश पुलिस के जवान व अफसर गाँव के मुसलमानों से बहुत ज्यादा खौफ खाते थे। उस जमाने में अंग्रेज पुलिस का कोई भी अफसर लोहारी राघो में घुसने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। क्योंकि यहाँ के मुसलमान अपने पास बहुत ही घातक हथियार रखते थे। मुसलमानों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। उनकी हर गतिविधी पर नजर रखने के लिए ही अंग्रेजों ने यहाँ पुलिस चौकी खुलवाई थी क्योंकि पुलिस को नारनौंद से आने में काफी समय लग जाता था। बताते हैं कि वर्ष 1947 में विभाजन के तुरंत बाद ही इस पुलिस चौकी को बंद कर दिया गया था। गाँव लोहारी राघो में यह पुलिस चौकी ठीक वहाँ थी जहाँ आज नंबरदार रमेश कम्बोज पुत्र गहला राम कम्बोज का मकान है।
आजाद हिंद फौज में लोहारी राघो की हिस्सेदारी
लोहारी राघो के वीर आजादी के पूर्व, आजादी के समय और आजादी के बाद भी देश की सीमाओं की सुरक्षा में जी-जान से जुटे हैं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में लोहारीवासियों के समर्थन व त्याग को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। देश की आजादी के लिए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आह्वान पर बनाई गई आजाद हिंद फौज में जिला हिसार के 592 जांबाज सिपाहियों में से दो लोहारी राघो से थे। अपने प्राणों की परवाह किए बिना फौज में शामिल होकर आजादी की जंग लड़ने वाले लोहारी के ये सैनिक हैं नेतराम सैनी व मुथरादास धानक। 80 के दशक में नेतराम सैनी तो वर्ष 2002 में मुथरा दास बूरा का निधन हो गया। लेकिन अफसोस सरकार व अफसरशाही उन्हें वह सम्मान देना भूल गई जिसके वे हकदार थे। कोई सरकारी सुविधा मिलना तो दूर की बात, इन दोनों स्वतंत्रता सेनानियों का नाम आज तक गाँव के गौरव पट्ट पर भी अंकित नहीं हो पाया है। आज भी इन दोनों स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार गाँव में रह रहे हैं। मुथरा दास बूरा का परिवार तो दाने-दाने का मोहताज है जिसे आज तक न ही तो ग्राम पंचायत कोई सहायता दे पाई है और न ही जिला प्रशासन। यहाँ तक कि मुथरा दास के घर में आज भी शौचालय तक नहीं है। यहाँ बता दें कि स्वतंत्रता सेनानी मुथरा दास धानक मूल रुप से गाँव गुराना के रहने वाले हैं और गाँव लोहारी राघो के दामाद हैं। आजादी के करीब 13 साल बाद जब गाँव लोहारी राघो में इनका पुर्नविवाह हुआ तो ये अपनी ससुराल में आकर ही रहने लगे थे। इनकी पहली पत्नी का उस समय देहांत हो गया था जब ये आजाद हिंद फौज में सेवाएं दे रहे थे।
1947 का गदर : कैसे टूटा था गाँव लोहारी राघो, पढ़ें बंटवारे की खौफनाक दास्तान
14 अगस्त 1947 का वह मनहूस दिन जब सियासतदानों की गंदी व खुदगर्ज राजनीति की बदौलत धर्म और मजहब के नाम पर भारत का विभाजन कर दिया गया। बंटवारे के इस काले अध्याय का हर पन्ना मनुष्यता के खून के छींटों से भरा है। धर्म के आधार पर हिन्दुओं के लिए भारत तो मुस्लमानों के लिए अलग मुल्क बनाया गया पाकिस्तान। तय हुआ कि सभी हिन्दु भारत में रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में। 15 अगस्त 1947 को आजादी के तुरंत बाद ही दोनों मुल्कों में पलायन शुरू हो गया। पाकिस्तान में रहने वाले हिंदु व सिक्ख भारत आ रहे थे तो भारत में रहने वाले मुसलमान पाकिस्तान में जाने लगे। लेकिन हरियाणा के जिला हिसार के तहसील हांसी(उस समय)स्थित मुस्लिम बाहुल्य गाँव लोहारी राघो के मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने से साफ इन्कार कर दिया और दो टूक कहा कि वे किसी कीमत पर अपनी जमीन को छोड़कर नहीं जाएंगे, वे यहीं पर मिनी पाकिस्तान बना देंगे चाहे अंजाम कुछ भी हो। लोहारी राघो के मुसलमानों द्वारा किए इस विद्रोही ऐलान के बाद आस-पास के गाँवों के हिंदू परिवारोें के साथ-साथ ब्रिटिश सेना के भी हाथ-पाँव फूल गए थे क्योंकि पूरे भारतवर्ष में किसी भी गाँव-शहर कस्बे में ऐसी नौबत नहीं आई थी। देश के सभी हिस्सों से मुसलमान शांतिप्रिय तरीके से गाँव खाली कर पाकिस्तान जा रहे थे। लोहारी राघो के अलावा भी हरियाणा में रांगड़ मुसलमानों के बड़े गाँव, शहर व कस्बे थे जैसे कि जुंडला, असंध, निसिंग, मुनक, भाटला, चांदी, बहशी, पुट्ठी, कान्ही आदि। लेकिन सभी गाँवों के मुसलमान सरकार द्वारा किए विभाजन के फैसले के अनुसार शांतिप्रिय तरीके से पाकिस्तान जा रहे थे। यहाँ यह बताना भी जरुरी है कि विभाजन के दौर में पूरे हरियाणा
में लोहारी राघो ही एकमात्र ऐसा गाँव था जिसे खाली करवाने के लिए स्वंय
ब्रिटिश सेना को मोर्चा संभालना पड़ा था।
कई गाँवों के मुसलमानों ने लोहारी में डाल लिया था डेरा
14 अगस्त 1947 को हुए भारत-पाक विभाजन के दो माह बाद भी यहाँ रहने वाले मुसलमान किसी भी कीमत पर पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं थे। उन्होंने तय कर लिया था कि वे यहीं पर मिनी पाकिस्तान बना देंगे, चाहे अंजाम कुछ भी हो। आस-पास के कई गाँवों के मुसलमान परिवारों ने एकजुट होकर लोहारी में डेरा डाल लिया था तथा गाँव के चारों तरफ गहरी खाई (नाला) खोदकर उसमें पानी भर दिया था ताकि पुलिस, सेना का कोई वाहन या कोई भी बाहरी व्यक्ति गाँव में प्रवेश न कर सके। गाँव के चारों तरफ मोर्चे लगाए गए थे जिसे तोड़ने के लिए आस-पास के गाँव सिसाय, बयाना खेड़ा, हैबतपुर, राखी शाहपुर, फरमाना समेत कई गाँवों के हिंदूओं खासकर जाटों ने एड़ी चोटी का जोर लगाया। इन गाँवों के लोगों द्वारा लोहारी राघो पर कुल 11 बार अटैक किए गए लेकिन कोई भी इन्हें भेदकर गाँव में घुस नहीं पाया और मुसलमानों से गाँव खाली करवाने यानि लोहारी को तोड़ने में असमर्थ रहे। आस-पास के गाँवों के लोगों व पूरे हिसार जिला की पुलिस द्वारा हथियार डाल दिए जाने के बाद अंग्रेज सेना ने सही समय पर सही फैसला लेते हुए स्वंय मोर्चा संभाला तथा 19 अक्तूबर 1947 के दिन पूरे गाँव को घेर लिया। ब्रिटिश सेना ने मुसलमानों द्वारा लगाए सभी मोर्चों को तोड़ते हुए सैकड़ों मुसलमानोें को मौत के घाट उतार डाला। 19 अक्तूबर 1947 के दिन अंग्रेज सिपाहियों द्वारा की गई इस गोलीबारी में करीब 300 से भी ज्यादा मुसलमान मारे गए तो भय से कांपते मुसलमानों ने रातों-रात गाँव छोड़ने का फैसला लिया और कबीले (झुंड)बनाकर गाँव डाटा, गुराना होते हुए बरवाला की तरफ प्रस्थान कर गए। कुछ दिन बरवाला में रुकने के उपरांत भूना, डबवाली व फाजिल्का होते हुए पाकिस्तान के पंजाब प्रांत स्थित मुलतान पहुंचे तथा वहाँ से पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जाकर बस गए।
लोहारी के कुख्यात हाकम अली सक्का घोड़ी वाले के हाथ थी विद्रोह की कमान
लोहारी राघो के गदर में सबसे अहम किरदार था हाकम अली सक्का जो कि घोड़ी वाले के नाम से मशहूर था तथा विभाजन के बाद मुसलमानों द्वारा छेड़े गए विद्रोह का नेतृत्व कर रहा था। हाकम अली सक्का उस समय का वह गब्बर सिंह था जिसके नाम से ही हर कोई सहम जाता था। इनकी बहादुरी के चर्चे दूर-दराज तक थे तथा ब्रिटिश सेना व पुलिस के अफसर भी हाकम अली का नाम सुनते ही कांप उठते थे। हाथ में खूंखार भाला व गंडासा (खतरनाक हथियार) लिए जब वह कुख्यात घोड़ी पर सवार होकर निकलता था तो सभी भागकर घरों में दुबक जाते और दरवाजे बंद कर लेते। गलियों में एकदम सन्नाटा पसर जाता। ठीक वैसे, जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों में जब डाकू घोड़ों पर सवार होकर गाँव, बस्ती में आते थे तो लोग खौफ में दरवाजे बंद कर घरों में कैद हो जाते थे। विभाजन से पहले ठीक ऐसा ही फिल्मी नजारा था गाँव लोहारी राघो का। क्या मजाल कोई घर से बाहर झांकने की भी हिम्मत कर जाए। कोई यदि गलती से भी सामने आ जाता, जिंदा न जाने पाता। बताते हैं कि हाकम अली सक्का का एक और मित्र था धनी सिंह जो कि गाँव मोठ का बताया जा रहा है। जब ये दोनों पीठ से पीठ मिलाकर लड़ते थे तो एक साथ सौ से भी अधिक लोगों से लड़ने का दम रखते थे। हाकम अली सक्का का एक नियम था कि वह रोजाना दिन में 3-4 बार गाँव के बाहर डेढ़ किमी तक का चक्कर लगाता था। इस दौरान जो भी उसके सामने आता, उसकी जान जाना लाजिमी था। रोजाना एक-दो को मौत के घाट उतारना उसके लिए मामूली बात थी। कई अंग्रेज सिपाहियों, ब्रिटिश पुलिस व सेना अफसरों, प्रशासनिक अधिकारी, कर्मचारियों सहित कई गाँवों के दर्जनों लोगों को मौत के घाट उतार चुका था लोहारी राघो का यह कुख्यात। बताते हैं कि इसी वजह से उसकी सारी जिंदगी रेल और जेल में ही कटी। गाँव-गुवांड में किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उसके खिलाफ गवाही दे सके। इसी का फायदा उठाकर वह हर बार बरी हो जाता और फिर से कत्ल कर दोबारा जेल पहुंच जाता। 14 अगस्त 1947 को भारत-पाक विभाजन के उपरांत जब लोहारी राघो के मुसलमानों ने पाकिस्तान न जाने का फैसला लिया था तो उस समय विद्रोह का नेतृत्व हाकम अली सक्का ही कर रहा था। यहाँ बता दें कि हाकम अली सक्का लोहारी राघो का मूल निवासी नहीं था बल्कि वह मूल रुप से गाँव मिर्चपुर का रहने वाला था। गाँव लोहारी राघो में उसका निकाह(विवाह) हुआ था। यहाँ वह अपने ससुराल में रह रहा था। लोहारी राघो में हाकम अली सक्का का मकान गाँव के बीचों-बीच ठीक उस जगह पर था जहाँ आज डेरी वाला चौक है। उसके पीछे रोहिला समाज के परिवार आबाद थे जिनमें सादी रोहिला व रुड़ा रोहिला का नाम बताया जा रहा है। इसके अलावा कुछ बनिया परिवारों के घर भी यहीं आस-पास थे। बताते हैं कि इसी डेरी वाले चौक व आस-पास की गलियों में ही हाकम अली सक्का की घोड़ी खुले में विचरण (घूमती) करती रहती थी। घोड़ी के गले में कोई लगाम नहीं डाली गई थी। हाकम अली के बुलाने पर वह तुरंत भाग कर उसके पास पहुंच जाती। हाकम अली जब भी घोड़ी पर सवार होकर निकलता तो उसके एक हाथ में गंडासा तो दूसरे में खतरनाक भाला रहता था जिन्हें वह लहराता रहता था।
हाकम अली सक्का ने कर दी थी सिसाय गाँव के रघुबीर सिंह की हत्या
15 अक्तूबर 1947 की बात है। दोपहर का समय था। सिसाय गाँव के चौधरी लाजपत राय साहब के बेटे रघुबीर सिंह अपने गाँव के ही कुछ साथियों के साथ गाँव लोहारी राघो की तरफ आ रहे थे। जैसे ही वे गाँव के दक्षिण दिशा में इदगाह(वर्तमान मेें राजकीय वरिष्ष्ठ माध्यमिक विद्यालय के भीतरी भाग में स्थित) से करीब 300-400 मीटर की दूरी पर स्थित ड्रेन के पास पहुंचे तो अचानक सामने से गाँव के कुछ रांगड़ मुसलमान आ गए और उन्हें घेर लिया। मुसलमानोें को लगा कि वे उनके घरों में लूटपाट करने व उनकी बहू-बेटियों से बदनियति के इरादे से यहाँ आए हैं क्योंकि राय साहब के बेटे रघुवीर के पास उस समय बंदूक भी थी।भीड़ में से किसी ने रघुबीर सिंह के कमर पर बंधी बंदूक की गोलियों वाली बैल्ट उतार ली। इतने में पीछे से घोड़ी पर सवार हाकम अली सक्का भी आ पहुंचा। हाकम अली को देख भगदड़ मच गई तथा सभी मुसलमान भी भाग गए। रघुबीर सिंह समेत सभी को मजबूरन बाजरे के खेत में छिपना पड़ा क्योंकि उनकी गोलियों वाली बैल्ट को मुसलमानों ने छीन लिया था। चहुं ओर एकदम से सन्नाटा पसर चुका था। हाकम अली सक्का की घोड़ी सिसाय रोड पर ड्रेन से काफी दूर तक जाकर वापिस गाँव की तरफ लौट पड़ी थी। इधर रघुबीर सिंह बाजरे के खेत में छिपे थे। सूरज की भारी तपिश व गर्मी के कारण वे पसीने से तर-बतर हो चुके थे। चहुंओर पसरे सन्नाटे से उन्हें लगा कि अब सब मुसलमान चले गए हैं। जल्दी से बाहर निकलकर वापस सिसाय लौट जाना चाहिए। बताया जाता है कि सड़क पर कोई है या नहीं, यह देखने के लिए जब कैप्टन रघुबीर सिंह बाजरे के खेत में पक्षिओं को उड़ाने के लिए बने जोंडे पर चढ़े तो इतने में हाकम अली सक्का दोबारा से वहाँ आ पहुंचा। इस बार हाकम अली ने जोंडे पर चढ़े रघुबीर सिंह को देख लिया तथा भाला घोंप-घोंप कर बुरी तरह से उनकी हत्या कर दी। यहाँ बता दें कि हाकम अली सक्का लोहारी राघो का मूल निवासी नहीं था बल्कि वह मूल रुप से गाँव मिर्चपुर का रहने वाला था। गाँव लोहारी राघो में उसका निकाह(विवाह) हुआ था। यहाँ वह अपने ससुराल में रह रहा था।
रघुबीर की मौत के बाद गम व गुस्से की आग में सुलग उठा था सिसाय, बदला लेने को खौल रहा था खून
बताते हैं कि जब रघुबीर सिंह की पार्थिव देह को उनके गाँव सिसाय लाया गया तो गुस्से व करुण कु्रंदन से पूरा गाँव दहल उठा। 16 अक्तूबर 1947 को रघुबीर सिंह को हजारों नम आंखों के बीच अंतिम विदाई दी गई थी। रघुबीर सिंह की अंतिम विदाई देने ब्रिटिश पुलिस व सेना के वरिष्ठ अफसर, प्रशासनिक अमला तथा भारी तादाद में ग्रामीण पहुंचे थे।पूरा सिसाय गाँव गम व गुस्से की आग में सुलग रहा था। हर जुबां पर थी तो बस एक ही बात कि लोहारी राघो के मुसलमानों से रघुबीर की हत्या का बदला लिया जाए। बताते हैं कि रघुबीर सिंह की अंतिम विदाई में इनके जीजा जो कि सेना में कैप्टन थे, वो भी आए हुए थे। इसी दिन सिसाय गाँव में ही ब्रिटिश सेना ने लोहारी राघो को तोड़ने (खाली करवाने) का पूरा एक्शन प्लान तैयार कर लिया था। और दिल्ली से टैंक व मशीनगनें मंगवा ली गई जिन्हें गाँव में आते-आते तीन दिन लग गए। 19 अक्तूबर 1947 को दोपहर करीब 12 बजे दिल्ली से आए टैंक व मशीनगनें लोहारी राघो के दक्षिण दिशा में स्थित सिसाय की सड़क पर पहुंच चुकी थी। यहाँ बता दें कि उस समय हांसी-सिसाय सड़क पूरी तरह से कच्ची थी।
मुसलमानों ने गाँव के चहुंओर खोद दी थी खाई, लगाए गए थे मोर्चे, इदगाह पर था सबसे बड़ा मोर्चा
सेना के वाहनों व टैंकों को रोकने के लिए मुसलमानों द्वारा लोहारी राघो के चारों तरफ गहरी खाई(नाला) खोदकर मोर्चे लगाए गए थे। सबसे बड़ा मोर्चा दक्षिण दिशा में स्थित इदगाह के पास लगाया गया था और सबसे ज्यादा मुसलमान भी यहीं जुटे थे क्योंकि अंगे्रज सेना यहीं से अटैक करने की तैयारी में थी। हाकम अली सक्का अब भी बाज नहीं आया और उसने लोहार मुसलमानों द्वारा बनाई एक देसी तोफ से सेना पर गोले बरसाने शुरु कर दिए जिसमें दो जवान मारे गए तथा कई बुरी तरह से जख्मी हो गए। बताया जाता है कि यह देसी तोफ जहाँ आज अनाज मंडी है, उसके पास स्थित एक पुराने पीपल के पेड़ के पास बनाई गई थी जिसे आजादी के बाद भी कई सालों तक गाँव के कई बुजुर्गों ने अपनी आंखों से देखा है। यहाँ बड़े बड़े कड़ाहों में तेल को आग से खौलाया जा रहा था तथा उनमें गोलों को पूरी तरह से गर्म करके एक देसी बड़ी तोफ (गुलेल) के माध्यम से सेना के जवानों पर फैंका गया था। गाँव के चारों और खुदी गहरी खाई की वजह से ब्रिटिश सेना के वाहन तो गाँव में प्रवेश कर नहीं सकते थे तो सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने गाँव की इदगाह के पास अपने टैंकों व वाहनों को रोक दिया और ऐलान किया कि सभी मुसलमान अपने हथियार जमा करवा दें और शांतिपूर्वक गाँव खाली करके पाकिस्तान चले जाएं। लेकिन मुसलमान न तो हथियार जमा जमा करवाने को राजी हुए और न ही गाँव खाली करने को। बाद में कुछ मुसलमान गाँव खाली करने को तो तैयार हो गए लेकिन हथियार जमा करवाने पर साफ इनकार कर दिया। हथियार जमा न करवाने के पीछे उनका तर्क था कि यदि वे हथियार ही जमा करवा देंगे तो पाकिस्तान जाते समय बीच रास्ते अपनी बहु-बेटियों की इज्जत कैसे बचा पाएंगे। ब्रिटिश सेना के अफसरों ने गाँव के मुसलमानों के समक्ष बातचीत का भी प्रस्ताव रखा। बातचीत के लिए मुसलमानों के मौजिज लोगों को बुलवाया गया। यहाँ एक जानकारी और भी सामने आई है कि अंग्रेजों ने मुसलमानों से बातचीत के लिए एक कमेटी भी बनाई थी। मसुदपुर गाँव का इतिहास लिखने वाले लेखक ज्ञान चंद आर्य के मुताबिक इस वार्तालाप कमेटी में गाँव लोहारी राघो के मुसलमानों के अलावा आस-पास के गाँवों के कुछ लोग भी शामिल थे।
इस तरह टूटी लोहारी, देखते ही देखते लग गए थे लाशों के ढ़ेर, गलियों-नालियों में बह रहा था खून
वार्तालाप बेनतीजा रही और मुसलमानों ने गाँव खाली करने व हथियार जमा जमा करवाने से दो टूक इंकार कर दिया। ब्रिटिश आर्मी ने एक बार तो अपने वाहन, टैंक व मशीनगनों को मोड़कर वापिस सिसाय गाँव की तरफ रुख कर लिया था। मुसलमानों ने सोचा कि सेना उनसे डर गई और वापिस लौट रही है। यह खबर सुनकर गाँव के दूसरे मोर्चों पर तैनात मुसलमान भी इदगाह वाले मोर्चे पर जुटने शुरु हो गए थे। इदगाह के सामने एक तालाब था जिसका दायरा आज सिकुड़कर काफी कम हो गया है। ब्रिटिश सेना के कुछ टैंक तालाब के उस पार भी थे। अचानक से अंग्रेज अफसरों ने सेना को अटैक (हमले) के आदेश दे दिए। बताया जाता है कि यह गाँव लोहारी राघो पर 12वाँ हमला था। अंग्रेज सेना ने इस बार मुसलमानों द्वारा लगाया मोर्चा तोड़ दिया और हजारों जवान गाँव में घुस गए। सभी टैंकों से इदगाह की तरफ दनादन गोलियां बरसने लगी और तड़तड़ाहट के साथ शुरू हो गया कत्ले-आम का वो खूनी खेल जिसे याद कर आज भी पाकिस्तान में बैठे मुसलमानों व उनकी पीढियों तक की रुह कांप उठती है। अंग्रेज सेना की गोलियों के सामने जो भी आया, बच न पाया। सेना के गाँव में घुसने पर मुसलमानों में भगदड़ मच चुकी थी। हर कोई अपनी जान बचाने की जुगत में था। कोई छतों के रास्ते भाग रहा था तो कोई छिपने के लिए तलाश रहा था सुरक्षित ठिकाना। इस दौरान सबसे पहली गोली हाकम अली के छोटे भाई मुंशी की जांघ में लगी थी जो बुरी तरह से जख्मी हो गया था। इस हमले में खुद हाकम अली सक्का तथा उसका दूसरा भाई छोटू खान समेत सैकड़ों मुसलमान मारे गए। गाँव लोहारी राघो की धरती खून से लाल हो चुकी थी। चहुं ओर लाशें बिछी थी। गलियों-नालियों में हर तरफ बह रहा था तो इंसानों का खून। किसी ने पिता खोया तो किसी ने भाई, चाचा, ताऊ तो किसी ने अपना बेटा। बताया जाता है कि इस नरसंहार में सैकड़ों मुस्लमान मारे गए। इस गदर में मारे गए मुसलमानों की वास्तविक संख्या का तो पता नहीं चल पाया है लेकिन इस गदर को अपनी आंखों से देखने वाले व इस घटना से संबंध रखने वाले हिंदू व मुसलमानों के अलग-अलग तर्क हैं। गाँव लोहारी राघो निवासी 102 वर्षीय बनारसी दास सरोहा की मानें तो ब्रिटिश सेना के इस हमले में एक हजार से ज्यादा मुसलमानों की जान गई थी। सिसाय निवासी धर्मपााल मलिक के मुताबिक इस हमले में करीब 500-600 लोगों की मौत हुई थी। इस पूरे मंजर को अपनी आंखों से देखने वाले गाँव लोहारी राघो छोड़कर पाकिस्तान के मुल्तान स्थित डेरा मुहाम्मदी में रहने वाले एक वृद्ध मुहम्मद सुलेमान बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के इस हमले में सबसे ज्यादा मौतें गाँव के दक्षिण में स्थित ईदगाह में हुई। यह सब उनकी आंखों के सामने हुआ। उस समय उनकी उम्र 22 साल थी। अंग्रेजों के इस हमले में गाँव लोहारी राघो के करीब 500 से ज्यादा मुसलमान मारे गए थे। गाँव मसूदपुर निवासी ज्ञान चंद आर्य बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के इस हमले में मुसलमानों के अलावा आस-पास के गाँवों के कुछ हिंदू लोग भी मारे गए थे। जिनमें दो लोग तो मसूदपुर गाँव से थे जो मुसलमानों से बातचीत के लिए बनाई गई वार्तालाप कमेटी में ही शामिल थे। इसके अलावा इस हमले में गाँव सिसाय से दो, हैबतपुर से एक, बयाना खेड़ा से एक तथा गाँव थापर खेड़ा से भी एक व्यक्ति की जान गई थी
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लोहारी राघो।
ईदगाह की दीवारों पर अंग्रेज सेना द्वारा बरसाई गई गोलियों के निशान आज भी
मौजूद हैं। गुलाबी रंग के गोले मेें आज भी दिखाई दे रहे हैं गोलियों के
निशान। वर्तमान में यह ईदगाह गांव के दक्षिण दिशा में स्थित राजकीय वरिष्ठ
माध्यमिक विद्यालय के भीतरी भाग में स्थित है। कुछ साल पहले तक इसी ईदगाह
की सभी दीवारों पर गोलियों के सैकड़ों निशान मौजूद थे। सबसे ज्यादा निशान
इदगाह के द्वार वाली दीवार पर मौजूद थे जिसे अब ढ़हा दिया गया है। वर्तमान
में केवल इसके पीछे की एक ही दीवार बची है जिस पर यह कुछ निशान आज भी
मौजूद हैं। तस्वीर : प्रवीन खटक |
बरसात का फायदा उठा रातों-रात भागे थे मुसलमान, सेना ने घेर रखा था गाँव
19 अक्तूबर 1947 के दिन जब ब्रिटिश सेना ने गाँव लोहारी राघो को घेर रखा था तो बताते हैं कि दोपहर बाद अचानक से मौसम खराब हो गया और बूंदाबांदी होने लगी। देर शाम तक भी झड़ (बरसात) ने रुकने का नाम नहीं लिया तो सड़कें कच्ची होने की वजह से दलदल में बदल गई। अब सेना की गाड़ियां भी इस दलदल में फंस चुकी थी और बरसात अभी भी जारी रही। रात होते-होते सेना ने भी गाँव के बाहर दक्षिण की तरफ डेरा डाल लिया था और बरसात थमने का इंतजार किया जाने लगा। सेना का प्लान था कि बरसात थमते ही फिर से अटैक कर गाँव खाली करवाया जाएगा। इधर सैकड़ों लोगों की मौत से गाँव के मुसलमानों में कोहराम मचा था। भय से कांपते मुसलमानों ने रात 10 बजे गाँव छोड़ने का फैसला लिया क्योंकि अब उन्हें समझ आ चुका था कि ब्रिटिश सेना गाँव खाली करवाए बिना वापिस नहीं लौटेगी। 19 अक्तूबर की रात को ही उन्होंने हमले में जान गंवाने वाले मृतकों को कब्रिस्तान में दफनाया और अलग-अलग कबिले (झुंड) बनाकर पश्चिम दिशा में गाँव डाटा की तरफ पलायन कर गए। ब्रिटिश सेना के हमले में मारे गए मृतक मुसलमानों के शवों को दफनाने के संबंध में 92 वर्षीय धन सिंह सैनी बताते हैं कि मृतक शवों को सेना, पुलिस के जवानों तथा लोहारी के स्थानीय हिंदुओं ने दफनाया था।
पड़ोसी गाँवों के हिंदुओं ने लोहारी के हिंदुओं को दी थी गाँव से निकलने की सलाह
गाँव लोहारी राघो निवासी 102 वर्षीय बनवारी लाल बताते हैं कि अंग्रेजों के हमले से एक-दो दिन पहले ही पड़ोसी गाँवों (सिसाय,डाटा,बयाना खेड़ा व राखी) के हिंदुओं ने गाँव लोहारी राघो के हिंदू परिवारों को कुछ दिन के लिए गाँव छोड़कर दूसरे गाँवों मेें जाने की सलाह दी थी। वे बताते हैं कि पड़ोसी गाँव के हिंदू गाँव को लूटने की फिराक में तैयार बैठे थे तथा वे लगातार लोहारी के चक्कर लगाकर हिंदुओं को भी गाँव से चले जाने को कह रहे थे। बनवारी लाल के मुताबिक वे स्वंय भी अपने परिवार के साथ राखी गाँव में चले गए थे। वहीं 93 वर्षीय ग्रामीण उजाला राम संभरवाल भी यही बताते हैं कि ब्रिटिश सेना के हमले से पहले हिंदू परिवार गाँव छोड़कर सुरक्षित ठिकानों पर शरण ले चुके थे। उजाला राम भी परिवार सहित दूसरी जगह चले गए थे तथा काफी समय बाद लौटकर लोहारी आए। इसके अलावा 93 वर्षीय धन सिंह सैनी ने बताया कि हिंदू परिवार अपने घरों में
ताले लगा मुसलमानों द्वारा लगाए मोर्चों से बाहर निकल गए। कोई हिंदू परिवार
दूसरे गाँवों में अपने सगे-संबंधियों के पास गए तो कुछ परिवारों ने पड़ौसी
गाँवों डाटा, मसूदपुर, गढ़ी अजीमा, राखी व हैबतपुर आदि गाँवों में शरण ली। गाँव में
पूरी तरह से हालात सामान्य होने के बाद कोई 2-3 दिन बाद ही वापिस लौट आया
तो कोई एक सप्ताह तो कोई एक-दो महिने बाद। धन सिंह सैनी के मुताबिक जिस दिन लोहारी राघो पर ब्रिटिश सेना का अटैक हुआ, उस दिन वे ईख यानि गन्ने तोड़ने के लिए सिसाय गाँव की तरफ गए हुए थे। लेकिन जब दोपहर बाद वापस लोहारी राघो लौटे तो गाँव के चारों तरफ बड़ी तादाद में सेना की गाड़ियां देख डर गए। इस दौरान उन्हें किसी ने बताया कि उनके परिवार के सभी सदस्य गाँव डाटा की तरफ चले गए हैं। धन सिंह सैनी बताते हैं कि वे भी डाटा चले गए थे तथा दो-तीन दिन बाद हालात पूरी तरह से सामान्य होने के उपरांत ही लोहारी राघो लौटे।
गाँव छोड़ते वक्त गले लिपटकर खूब रोए थे हिंदू-मुसलमान
हम पहले ही बता चुके हैं कि गाँव लोहारी राघो के हिंदू व मुसलमानों के बीच कभी कोई विवाद नहीं था। दोनोंं समुदाय के लोग आपस में मिल-जुलकर रहते थे। 103 वर्षीय बनवारी लाल सरोहा के मुताबिक जब ब्रिटिश सेना गाँव की तरफ बढ़ रही थी तो हमले से पहले लोहारी के मुसलमानों ने भी गाँव में रहने वाले हिंदू परिवारों को गाँव छोड़कर चले जाने के लिए कहा था। मुसलमान बिल्कुल नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से हिंदू परिवार भी बेमौत मारे जाएं। हिंदुओं को भी अहसास हो गया था कि गाँव में कुछ बड़ा होने वाला है तथा अब
कुछ दिन के लिए गाँव से बाहर जाने में ही भलाई है। वे बताते हैं कि जब लोहारी के हिंदू परिवार गाँव छोड़कर दूसरे गाँव में शरण लेने को जा रहे थे तो मुसलमानों संग गले लिपटकर खूब रोए थे। विदाई की इस वेला में हर आँख नम थी, और हर गला भरा हुआ। सच में आसमां भी रो उठा था उस दिन। हर निगाह एक-दूसरे को एक टक निहारे जा रही थी कि पता नहीं दोबारा कभी एक-दूसरे को देख भी पाएंगे या नहीं। यह आखिरी वक्त था जब लोहारी राघो के हिंदू-मुसलमानों ने एक-दूसरे को देखा था।
लोहारी टूटते ही गाँव में दो दिन तक हुई जमकर लूटपाट, खिड़की-दरवाजे तक उतार ले गए थे लुटेरे
ब्रिटिश सेना के अटैक के बाद चहुंओर लोहारी राघो के टूटने का ढ़िंढ़ोरा पिट गया और 20 अक्तूबर से शुरू हो गया गाँव के घरों में लूटपाट का सिलसिला। क्योंकि मुसलमानों के गाँव छोड़ते ही सेना भी यहाँ से जा चुकी थी। पहले से ही ताक(इंतजार) में बैठे आस-पास के गाँवों के ग्रामीणों ने मुसलमानों व हिंदुओं के घरों पर धावा बोल दिया और सभी पशु गाय, भैंस, बैल आदि सब खोल ले गए। लुटेरों के हाथ जो भी पैसा, जेवर व कीमती सामान आया, सब लूट ले गए। ग्रामीण धन सिंह सैनी के मुताबिक उस समय पड़ौसी गाँवों के लुटेरों ने मुसलमानों के घरों के साथ-साथ हिंदुओं के घरों में भी डाका डाला था। क्योंकि ब्रिटिश सेना के डर से हिंदू परिवार भी लोहारी राघो छोड़कर दूसरे गाँवों में जा चुके थे। वे बताते हैं कि उस समय लोहारी राघो में लूटपाट का इस कदर नंगा नाच हुआ था कि लुटेरे घरों के खिड़कियां, दरवाजे तक उतार ले गए थे। 103 वर्षीय बनवारी लाल सरोहा के मुताबिक पड़ौसी गाँवों के लोग काफी दिनों से इंतजार में थे कि कब यहाँ के मुसलमान गाँव से छोड़कर जाएं और वे घरों में लूटपाट करें। 98 वर्षीय छोटो देवी जांगड़ा बताती हैं कि मुसलमानों को गाँव से निकालने के लिए ब्रिटिश सेना द्वारा जो एक्शन लिया गया था, उससे करीब दो माह पहले ही वे लोहारी से अपने मायका गाँव सिसाय चली गई थी। जब वे लौटकर लोहारी आई तो उनके घर में भी सब कुछ लुट चुका था। घर के बर्तन, संदूख, बिस्तर समेत सारा कीमती सामान गायब था। वे पूरे दावे के साथ बताती हैं कि उनके घर से लूटा गया सामान गाँव डाटा में देखा गया था और वहां लुटेरों द्वारा उसकी बोली लगाई गई थी। वे बताती हैं कि मुसलमानों के जाने के बाद लुटेरों ने लोहारी राघो में जमकर उत्पात मचाया था। बता दें कि छोटो देवी गाँव सिसाय निवासी उदय सिंह जांगड़ा की बेटी हैं। आजादी से दो साल पहले वर्ष 1945 में छोटो देवी का विवाह गाँव लोहारी राघो निवासी रामजीलाल के बेटे दीवान सिंह जांगड़ा के साथ हुआ था। इनकी दो बेटियां हैं एक अंगूरी जांगड़ा जो अध्यापिका हैं तथा वर्तमान में जिला जींद के गाँव रामराय में रह रही हैं जबकि दूसरी बेटी ओमपति का विवाह हिसार के गाँव माजरा में हुआ है। इनके पति दीवान सिंह जांगड़ा का विभाजन के कुछ वर्ष पश्चात ही निधन हो गया। बताते हैं कि ब्रिटिश सेना से पहले लोहारी राघो पर आस-पास के दर्जनभर गाँवों के लुटेरों द्वारा एकजुट होकर जितने भी हमले किए गए थे, सभी का मकसद मुसलमानों को यहाँ से खदेड़कर उनके घरों को लूटना था। लेकिन 8-10 गाँवों के हिंदुओं द्वारा 11 से ज्यादा हमले करने के बावजूद भी वे लोहारी राघो को तोड़ नहीं पाए थे। अंत में सेना को एक्शन लेना पड़ा था।
डाटा, बरवाला, भूना, डबवाली, फाजिल्का से मुल्तान के रास्ते बस्ती मलूक पहुंचे लोहारी राघो के मुसलमान
गाँव
लोहारी राघो को छोड़ने के उपरांत यहां के मुसलमान पैदल चलते हुए गाँव डाटा,बधावड़
व ढाड के खेतों व पगडंडियों से होते हुए बरवाला पहुंचे। बताते हैं कि बीच रास्ते गाँव बधावड़ व ढाड
के पास भी स्थानीय ग्रामीणों द्वारा लोहारी के मुसलमानों पर हमले किए गए
तथा यहां 8-10 दिन रुकने के उपरांत भूना, डबवाली, फाजिल्का से होते हुए
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के जिला मुल्तान में जिला मुख्यालय से महज 35
किमी. दूर मुलतान-बहावलपुर मुख्य मार्ग पर स्थित बस्ती मलूक पहुंचे। यहाँ
हाईवे किनारे टिलों पर पाकिस्तान सरकार द्वारा बनाए कैंप में कई दिन रहने
के उपरांत पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जाकर बस गए। बस्ती मलूक से कुछ
ही दूरी पर स्थित है गाँव टिब्बा रावगढ़ जहाँ आज भी गाँव लोहारी राघो से
पलायन करके जाने वाले सबसे ज्यादा मुसलमान रह रहे हैं। बताते हैं कि गाँव
टिब्बा रावगढ़ को पाकिस्तान में लोहारी राघो वालों के गाँव के नाम से भी
जाना जाता है। 75 साल पहले लोहारी राघो से पलायन करके गए करीब 300 परिवार
आज भी टिब्बा रावगढ़ में रह रहे हैं।और खास बात यह कि इस गाँव को आज भी
पाकिस्तान में ‘लोहारी वालों’ के गाँव के नाम से जाना जाता है।
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लोहारी
राघो। तस्वीर में दिखाई दे रही यह मुस्लिमों के जमाने की वही ईदगाह है जिस
पर अंग्रेजों ने कभी जमकर जुल्म ढ़हाया था। अक्तूबर 1947 में अंग्रेजों ने
इस ईदगाह पर हमला कर गाँव के अनेक मुसलमानों को मौत के घाट उतारा था। तस्वीर : प्रवीन खटक |
नरसंहार की गवाह है ईदगाह, आज भी हैं अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के निशान
वर्तमान में गाँव लोहारी राघो के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में स्थित ईदगाह इस नरसंहार का सबसे बड़ा गवाह है। इस ईदगाह की दीवारों पर अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के कुछ निशान आज भी साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं। कुछ वर्ष पहले तक ईदगाह की दीवारों पर गोलियों के सैकड़ों निशान मौजूद थे। गोलियों के सबसे ज्यादा निशान ईदगाह के मुख्य द्वार वाली दीवार पर सामने यानि पूर्व की तरफ थे। वक्त के साथ ये दीवारें जर्जर हुई तो मुरम्मत के साथ-साथ ऐतिहासिक खूनी यादें भी दफन होती चली गई। वर्तमान में इस ईदगाह की सिर्फ एक दीवार ही शेष बची है। मुख्य द्वार वाली दीवार को ढहाकर विद्यालय के कमरों का निर्माण किया गया है। इसके अलावा उत्तर व दक्षिण दिशा की तरफ दोनों दीवारों को भी ढ़हा दिया गया है। गाँव में जोहड़ किनारे जहां आज अशोक सिंदवानी का मकान है, इसके ठीक पीछे स्थित एक पुरानी दीवार पर भी गोलियों के निशान कुछ साल पहले तक मौजूद थे। लेकिन यह दीवार भी करीब 4-5 वर्ष पूर्व ढह चुकी है। इसके अलावा भी गाँव के अंदर कई प्राचीन दीवारों पर अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के निशान कुछ साल पहले तक देखने को मिलते थे लेकिन अब वे नहीं हैं क्योंकि ग्रामीणों ने उन दीवारों को ढ़हाकर नए भवनों का निर्माण कर लिया है। अंग्रेजों द्वारा गाँव के भीतर सबसे ज्यादा गोलियां गीगो बनिया के नोहरे व उसके आस-पास की दीवारों व घरों पर बरसाई गई थी। क्योंकि इदगाह में गोलियां चलने के उपरांत गाँव में भगदड़ चुकी थी तथा ढ़ेर सारे मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए भागकर गीगो बनिया के नोहरे में छिप गए थे। बताते हैं कि उस समय गीगो बनिया के घर का नोहरा पूरे लोहारी राघो में सबसे बड़ा था। इस नोहरे में सैकड़ों मुसलमानों ने शरण ली थी और उनमें से अधिकतर मारे गए। गीगो बनिया का नोहरा राजेंद्र लिखा के मकान के सामने मौजूद था। पूरी गली में जितने भी मकान हैं, और दूसरी गली में जहाँ डॉक्टर राजू गाबा का मकान है, यहाँ तक सारा एक ही मकान था जो गीगो बनिया का बताया जाता है। सिर्फ एक भीतरी दीवार को छोड़कर वर्तमान में सभी पुरानी खूनी दीवारें ढ़ह चुकी हैं। यहाँ फिलहाल कोई गोली का निशान मौजूद नहीं है क्योंकि यह दीवार मकान के भीतरी भाग में स्थित थी। सामने की दीवारें जिस पर गोलियों के निशान मौजूद थे, उन्हें कुछ साल पहले ही ढ़हाकर नई दीवारों का निर्माण कर दिया गया है।
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लोहारी राघो। राजेंद्र
लिखा के घर के सामने स्थित गीगो बनिया के मकान का कुछ हिस्सा आज भी दिखाई
दे रहा है जिसके नोहरे मेें उस समय सैकड़ों मुसलमान छिपे थे। अंग्रेजों ने
इस घर पर जमकर गोले बरसाए थे तथा यहाँ भी ढ़ेरों मुसलमानों की जान गई थी। इस
मकान की जिन सामने वाली दीवारों पर गोलियों के निशान थे, ग्रामीणों ने
उन्हें ढ़हाकर अब नई दीवारों का निर्माण कर लिया है। तस्वीर : प्रवीन कम्बोज
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जाते-जाते भी भाईचारे की गजब मिसाल पेश कर गए थे मुसलमान, पढ़ें दिल को छू देने वाली कहानी
गाँव लोहारी राघो के हिंदू व मुसलमानों के बीच काफी सौहार्द था तथा वे हमेशा ही प्यार, मोहब्बत से रहते थे। अंग्रेजों द्वारा किए गए हमले के उपरांत गाँव छोड़ते वक्त भी लोहारी राघो के मुसलमानों ने भाईचारे की ऐसी गजब मिसाल पेश की जिससे ग्रामीण आज भी उनके कायल हैं। 98 वर्षीय छोटो देवी जांगड़ा बताती हैं कि विभाजन से पहले गाँव लोहारी राघो में एक गुलाब बनिया का मकान था। गुलाब बनिया के निधन के उपरांत उनकी पत्नी धापां अपनी दो जवान बेटियों के साथ अपने घर में रह रही थी। गुलाब बनिया का मकान लोहारी राघो में ठीक उस जगह पर था जहाँ आज पृथ्वी जांगड़ा का मकान है। इसके साथ ही गीगो बनिया का मकान था। छोटो देवी जांगड़ा ने बताया कि जिस दिन लोहारी राघो पर अंग्रेजी सेना ने हमला किया था तो पूरा गाँव सुनसान हो चुका था। क्योंकि हिंदू तो सेना के अटैक के भय से पहले ही गाँव छोड़कर अन्य गाँवों में शरण ले चुके थे। मुसलमान अपने भरे घर छोड़कर पाकिस्तान जा रहे थे। इस दौरान आस-पास के गाँवों के लुटेरों की नजर वीरान हो चुके गाँव लोहारी राघो पर थी क्योंकि वे घरों को लूटने की फिराक में थे। उस दिन हिंदू परिवारों में सिर्फ एक धापां देवी ही अपनी जवान बेटियों के साथ गाँव में मौजूद थी। जब मुसलमानों को इस बाबत पता चला कि गाँव में धापां देवी अकेली हैं और उनके घर में दो जवान बेटियां भी हैं तो उन्होंने किसी अनहोनी का अंदेशा जताते हुए उन्हें भी अपने साथ कबीले में ले लिया तथा बरवाला तक अपने साथ ले गए। वहां जाकर मुसलमानों ने धापां देवी व उनकी दोनों बेटियों को उनके रिश्तेदार के घर सुरक्षित छोड़ दिया। इस तरह मुसलमानों ने धापां देवी व उनकी बेटियों की जान व इज्जत बचाई। क्योंकि मुसलमानों के जाने के बाद यदि वे अकेली गाँव में रहती तो उनके साथ कुछ भी अनहोनी हो सकती थी। क्योंकि हम पहले ही बता चुके हैं कि मुसलमानों के गाँव छोड़ने के उपरांत दो दिन तक गाँव में जमकर लूटपाट हुई थी।
जानें कौन थे बब्बू साहब और लोहारी राघो के इतिहास में क्यों हैं वे खास
19वीं शताब्दी में गाँव लोहारी राघो के सबसे महत्वपूर्ण शख्स थे बब्बू साहब जिनके पास गाँव की लगभग तीन हिस्से जमीन थी और उनके खेतों में दो रजबाहों (माइनर) की 6 मोरी का पानी लगता था। शायद आप में से ज्यादातर ने यह नाम पहली बार सुना होगा। लेकिन आजादी से पहले गाँव में रहने वाले स्थानीय बाश्ािंदें बब्बू साहब से भली-भांति वाकिफ हैं। बताया जाता है कि बब्बू साहब उस जमाने में लोहारी राघो के सबसे बड़े जमींदार थे। और उनका इस कदर रुतबा था कि गाँव में हर कोई उनकी बात को मानता था। गाँव का कोई भी मसला हो, सार्वजनिक हो या निजी, सभी में बब्बू साहब का फैसला ही सर्वमान्य होता था। गाँव के हिंदू व मुसलमानों के बीच भी यदि किसी छोटी-मोटी बात पर विवाद हो भी जाता तो भी बब्बू साहब ही समझौता करवाते थे। बताते हैं कि आजादी से कुछ समय पहले ही बब्बू साहब गाँव लोहारी राघो से अपनी जमीन जायदाद आदि बेचकर नैनीताल में जाकर रहने लगे। गाँव लोहारी राघो में आज भी इनका घर मौजूद है जो कि अब पूरी तरह से ढ़ह चुका है जिसके अवशेष अभी भी मौजूद हैं। बब्बू साहब का घर गाँव में पूर्व सरपंच व हांसी विधायक विनोद भ्याना के घर से कुछ कदम की ही दूरी पर मौजूद था। विभाजन
के उपरांत इसी जगह पर बाबा देव ने गुरुद्वारा की स्थापना की थी लेकिन कुछ
साल बाद इस भवन के ज्यादा खंडहर हो जाने के पश्चात गुरु ग्रंथ साहिब को
यहाँ से मुनीष भ्याना नंबरदार के घर विराजमान कर दिया गया। आज भी आप इस महल
के अवशेष यहाँ देख सकते हैं।विभाजन के बाद बब्बू साहब आखिर कहाँ गए, इस संबंध में कोई जानकारी नहीं मिल पाई है। लेकिन 103 वर्षीय बनवारी लाल सरोहा की मानें तो विभाजन के बाद बब्बू साहब का परिवार पाकिस्तान के लाहौर में जाकर रहने लगा था। वर्तमान में उनके परिजन लाहौर में ही आबाद हैं।
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लोहारी राघो। यह अवशेष उसी हवेली के हैं जहाँ विभाजन से पहले गाँव लोहारी राघो के सबसे बड़े जमींदार बब्बू साहेब रहते थे। आजादी के कुछ समय बाद तक यहाँ गुरुद्वारा बनाया गया था लेकिन हवेली ज्यादा जर्जर होने के कारण हटा दिया गया। तस्वीर : प्रवीन कम्बोज |
अरोड़ा, कम्बोज व सिख परिवारों का आगमन
19 अक्तूबर 1947 को ब्रिटिश सेना द्वारा गाँव लोहारी राघो से मुसलमानों को खदेड़कर निकालने के पश्चात पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए कम्बोज, अरोड़ा, खत्री व सिख समाज के लोगों का गाँव में आगमन शुरु हो गया। विस्थापितों के लिए यहाँ सब कुछ नया था तो उन्हें आबाद करना एक बड़ी चुनौती व जिम्मेदारी का काम था। गाँव लोहारी राघो के सबसे पहले हिंदू नंबरदार प्रहलाद सिंह सैनी ने आगे आकर तत्कालीन तहसीलदार व पटवारी के सहयोग से पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए सभी परिवारों को यहाँ आबाद करवाने में अहम भूमिका निभाई। पाकिस्तान से विस्थापित होकर आने वाले पंजाबी परिवारों के आगमन का सिलसिला अगले करीब डेढ़-दो साल तक जारी रहा। बताते हैं कि जब मुस्लिम परिवार यहाँ से छोड़कर पाकिस्तान चले गए थे और आधे से ज्यादा गाँव सुनसान हो गया था तो नए आने वाले लोगों तथा कुछ यहाँ के लोकल स्थानिय बाशिंदों द्वारा यहाँ की पंचायती/सरकारी जमीन पर खड़े हरे-भरे वृक्षों को काटकर अवैध कब्जे करने का खेल शुरू कर दिया गया था। जिन पंचायती/सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे किए जा रहे थे, यह उन्हें सरकार द्वारा अलॉट की गई जमीन से अलग थी जो कि गैरकानूनी था। इस पर नंबरदार प्रहलाद सैनी ने बड़ी ही सूझ-बूझ के साथ जिला प्रशासन की मदद से न केवल हरे-भरे पेड़ों को कटने से रुकवाया बल्कि अवैध कब्जा करने वालों के अरमानों पर भी पानी फेरा।
जानें लोहारी राघो का भौगोलिक ग्राफ, 8 हजार आबादी, 4744 वोटर
29.16'0'' अक्षांश और 76.03'0'' देशांतर पर राष्टय राजधानी नई दिल्ली से करीब 175 किमी, हिसार से 50 किमी व हांसी से 26 की.मी. दूर हांसी-उचाना मार्ग पर स्थित गाँव लोहारी राघो हरियाणा के जिला हिसार का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक हड़प्पाकालीन गाँव है। 3121.05 हैक्टेयर यानि 7848.1248 एकड़ में फैले इस गाँव की आबादी वर्तमान में लगभग 8 हजार से भी अधिक है और वर्ष 2019 के आंकड़ों के मुताबिक यहाँ 4744 लोग मतदान का अधिकार रखते हैं। नारनौंद विधानसभा क्षेत्र अंतर्गत आने वाले इस गाँव के पश्चिम में डाटा ,उत्तर में हैबतपुर व दक्षिण में गढ़ी अजीमा व मोठ गाँव हैं। गाँव में सभी जातियों के लोग आपस में सौहार्द से रह रहे हैं व आपस में कोई वैर विरोध नहीं है।
आजादी से पहले ही चालू है प्राईमरी स्कूल, 1998 से लगने लगी 10+2 की कक्षाएं
लोहारी
राघो में आजादी से पहले से ही प्राईमरी स्कूल चालू है। विभाजन से पहले
हांसी वाले जोहड़ के किनारे पीपल के पेड़ के पास सरकारी स्कूल बनाया गया था
जिसे बाद में गाँव के उत्तर दिशा में स्थित मस्जिद (जहाँ आज बाबा बंदा सिंह
बहादुर का गुरुद्वारा है) में शिफ्ट कर दिया गया था। बताते हैं कि यहाँ भी
कुछ दिन ही कक्षाएं लगी। तत्पश्चात कुछ साल तक गाँव के मुख्य बाजार में
जहाँ आज उप स्वास्थ्य केंद्र है, इस जगह पर सरकारी स्कूल स्थापित किया गया
था। गाँव में जहाँ अब वर्तमान में प्राथमिक विद्यालय है, इसकी नींव वर्ष
1952 में लोहारी राघोे के पहले सरपंच सुधन सैनी द्वारा रखी गई थी जो बाद
में अपग्रेड होकर मिडल विद्यालय बना तथा 1982 में अपग्रेड होकर हाई स्कूल।
वर्ष 1998 में तत्कालीन बिजली मंत्री जसवंत सिंह ने वरिष्ठ माध्यमिक
विद्यालय का दर्जा दिला दिया। इसके अलावा गाँव में स्थित न्यू आदर्श सी.सै.
स्कूल के विद्यार्थी भी शिक्षा के क्षेत्र में अनेक उपलब्धियां हासिल कर
रहे हैं। इस विद्यालय के विद्यार्थियों ने बोर्ड परीक्षाओं में उत्कृष्ट
प्रदर्शन करते हुए गाँव व विद्यालय का नाम रोशन किया है। गाँव में अभी तक
कोई आईटीआई, कॉलेज व तकनीकी संस्थान नहीं है जिसकी वजह से यहाँ के काफी
संख्या में छात्र-छात्राएं नारनौंद, हांसी, हिसार, जींद व प्रदेश के अन्य
शहरों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। गाँव के काफी लोग सरकारी व गैर सरकारी
संस्थानों में उच्च पदों पर कार्यरत हैं।
लोहारी राघो की प्रतिभाओं ने देश-विदेश में गाड़े झंडे
गाँव लोहारी राघो ने आज देश ही नहीं अपितु दुनिया को भी अनेक प्रतिभाएं दी हैं। लोहारी राघो की धरती को गर्व है कि यहाँ के कई होनहार शिक्षा, खेल, शिक्षण व राजनीति समेत विभिन्न क्षेत्रों में गाँव लोहारी राघो का नाम गर्व से ऊंचा कर रहे हैं। गाँव के अनेक प्रतिभावान अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा समेत दुनिया के कई देशों में सरकारी व निजी क्षेत्र में उच्च पदों पर कार्यरत हैं। इसके अलावा भारतवर्ष के अलग-अलग राज्यों व शहरों में भी यहाँ के प्रतिभावान अहम पदों पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। हाल ही में दिल्ली सरकार से सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का अवार्ड हासिल करने वाले गाँव लोहारी राघो निवासी प्रो. गुलशन धमीजा दिल्ली स्थित आईपीयू में एसिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इसके अलावा गाँव लोहारी राघो निवासी अजय चावला जो कि वर्तमान में जाखल मंडी में भारतीय स्टेट बैंक में प्रबंधक हैं वहीं पंजाब नेशनल बैंक में प्रबंधक रहे कश्मीरी लाल चांदना अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इसके अलावा विनोद चावला जो कि पंचकूलीा में महिला एवं बाल विकास विभाग के बहुत ही प्रतिष्ठित संयुक्त निदेशक के पद पर कार्यरत हैं। इसके अलावा खैराती लाल चांदना जो कि सिंचाई विभाग में अधीक्षक अभियंता के पद से सेवानृवत्त हो चुके हैं। महिला एवं बाल विकास विभाग में ही गाँव की बेटी श्रीमती उषा चांदना वर्तमान में जिला करनाल में जिला योजना अधिकारी हैं। इसके अलावा भारतीय डाक विभाग में दीपक चौपड़ा बतौर एएसपी सेवाएं दे र हे हैं। गाँव लोहारी राघो निवासी इकबाल चांदना राजकीय महाविद्यालय में सहायक प्रोफेसर रहे हैं।
ये हैं लोहारी राघो के स्टार : शिक्षा, खेलों समेत विभिन्न क्षेत्रों में चमकाया गाँव का नाम
गाँव लोहारी राघो के अनेक होनहारों ने शिक्षा, खेलों समेत अलग-अलग क्षेत्रों में गाँव का नाम गर्व से रोशन किया है। गाँव लोहारी राघो निवासी राकेश खन्ना की पुत्री निताली खन्ना ने वर्ष 2017 में (नेशनल इलिजीबिलिटी कम इंट्रेस टेस्ट) राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उतीर्ण कर गाँव का नाम रोशन किया है। एनइइटी परीक्षा उतीर्ण करने वाली निताली खन्ना गाँव लोहारी राघो की पहली होनहार बेटी हैं। इसके अलावा वर्ष 2022 में किसान संजय भ्याना के बेटे कशिश भ्याना ने भी राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उतीर्ण कर बड़ी उपलब्धि हासिल की है। इसके अलावा ग्रामीण बारु राम वर्मा की पुत्री अंजु वर्मा वर्ष 2019-20 में हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड की 10वीं की परीक्षा में पूरे हरियाणा राज्य में तीसरा स्थान हासिल कर गाँव लोहारी राघो के साथ-साथ हल्का नारनौंद व जिला हिसार का मान बढ़ा चुकी हैं। वहीं ग्रामीण सुभाष ठकराल की पुत्री अनिता ठकराल ने भी वर्ष 2019-20 में हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड की कक्षा 12वीं की परीक्षा में पूरे प्रदेश में पांचवां स्थान हासिल कर गाँव लोहारी राघो का नाम रोशन किया है। खेलों में भी लोहारी राघो की प्रतिभाएं पिछे नहीं हैं। ग्रामीण नरेंद्र बड़गुजर की पुत्री प्रेरणा बड़गुजर ने छोटी सी उम्र में ही कमाल कर दिखाया है। प्रेरणा ने अंडर-14 आयु वर्ग में योग की दुनिया में गाँव लोहारी राघो को विशेष पहचान दिलाई है। छोटी सी उम्र में योग के क्षेत्र में परचम लहराते हुए बिटिया प्रेरणा ने राज्य स्तर तक गाँव का नाम रोशन किया है। प्रेरणा अब तक कई बार जिला व राज्य स्तर की योग प्रतिस्पधार्ओं में पहला स्थान हासिल कर गाँव को गौरवान्वित कर चुकी हैं। पूरे गाँव को बेटी की प्रतिभा पर नाज है क्योंकि प्रेरणा बेटी का चयन राष्टÑीय स्तर पर आयोजित होने वाले खेलो इंडिया के लिए भी कर लिया गया है। इसके अलावा गाँव के साधु सरोहा जिला व ब्लॉक स्तरीय कई दौड़ प्रतियोगिताओं में मेडल व ट्राफियां जीतकर गाँव लोहारी राघो का नाम रोशन करते आ रहे हैं। इसके अलावा हरियाणा पुलिस के जवान श्रवण बड़गुजर के पुत्र जूनियर जुडो प्लेयर रोहित बड़गुजर ने भी महज 14 साल की उम्र में ही सफलता की बेमिसाल कहानी लिख डाली है। रोहित बड़गुजर ने महज डेढ़ साल की मेहनत में बड़े-बड़े धुरंधरों को पछाड़कर जूडो प्रतियोगिताओं में दो बार राज्य स्तर पर गोल्ड तो एक बार जिला स्तर पर गोल्ड मेडल हासिल कर गाँव लोहारी राघो, जिला हिसार व अपने माँ-बाप का नाम रोशन किया है। वह अब तक दो बार राज्य स्तर तो कई बार जिला व स्कूल स्तरीय जूडो प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर सम्मान पा चुके हैं। सबसे बड़ी बात राज्य स्तरीय प्रतिभा सम्मान समारोह के दौरान रोहित बड़गुजर को हरियाणा गौरव सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। गाँव लोहारी राघो को रोहित बड़गुजर की इन शानदार उपलब्धियों पर नाज है। खेती व पशुपालन में भी यहाँ के किसानों ने खूब नाम कमाया है। भगवान दास कम्बोज समेत यहाँ के अनेक किसान बागवानी की खेती कर अन्य किसानों के लिए प्रेरणास्त्रोत बने हैं। इसके अलावा ग्रामीण पशुपालक सुनील बिद्दू पुत्र किशन बिद्दू ने पशुपालन विशेषकर भेड़ पालन में पूरे जिला हिसार में पहला स्थान हासिल कर गाँव का मान बढ़ाया है। सुनील बिद्दू सांसी बिरादरी से हैं। इन्होंने भेड़ पालन में पूरे जिला हिसार में पहला स्थान प्राप्त कर गाँव लोहारी राघो का नाम रोशन किया। सुनील को विगत 18 सितंबर 2019 के दिन गौशाला डेरी में आयोजित कार्यक्रम के दौरान राजकीय पशुधन केंद्र हिसार के वैज्ञानिकों व एसडीएम हांसी वीरेंद्र सहरावत द्वारा भी सम्मानित किया गया था।
राष्टपति अवार्डी र्स्व. हंसराज कम्बोज : भुलाया नहीं जा सकता इनका बलिदान
लोहारी राघो के जांबाजों ने राष्ट्र सेवा, सहयोग, सामर्थ्य, शक्ति, शौर्य एवं बलिदान का अनूठा इतिहास रचा है।
नि:सन्देह यहाँ के लोग आज भी राष्ट्रीय रक्षा व सुरक्षा के निमित न केवल कटिबद्ध हैं, बल्कि वचनबद्धता के साथ सक्रिय भूमिका भी निभा रहे हैं। यहां के अनेक युवा आज भी पुलिस व भारतीय सेना में देश की सेवा कर रहे हैं। गाँव लोहारी राघो निवासी हरियाणा पुलिस के पूर्व इंस्पेक्टर शहीद हंसराज कम्बोज के बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। जिनकी खुशबू से आज भी गाँव लोहारी राघो की मिट्टी महकती है। लोहारी राघो की आन-बान और शान हरियाणा पुलिस के पूर्व इंस्पेक्टर व राष्टपति अवार्डी शहीद हंसराज कम्बोज अपनी ड्यूटी को पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ निभाते आ रहे थे। 7 जुलाई 2003 को उचाना के पास ड्यूटी के दौरान बदमाशों संग हुई एक मुठभेड़ में शहीद हो गए। 20 जून 2005 को हंसराज कम्बोज को मरणोपरांत भारत के तत्कालीन राष्टपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा वीरता पदक प्रदान किया गया। हरियाणा पुलिस के इस होनहार अफसर स्वर्गीय हंसराज कम्बोज पर गाँव लोहारी राघो को नाज है और गाँव उन्हें हमेशा दिल से नमन करता रहेगा। भले ही वे आज शारीरिक तौर पर हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वे हमेशा लोहारी के दिलों में बसे रहेंगे।
राजनीति में भी दबदबा, हांसी विधायक विनोद भ्याना की जन्मभूमि भी है लोहारी
राजनीतिक गलियारों में भी लोहारी राघो का रूतबा अन्य गाँवों के मुकाबले अधिक है। नारनौंद की राजनीति में हमेशा ही लोहारी का अहम रोल रहा है या यूं कहें कि नारनौंद की राजनीति इस गाँव के बिना अधूरी है। हर बार विधानसभा चुनावों में जीत-हार के आकड़ों में इस गाँव की अहम भूमिका रहती है। यही नहीं गाँव के पूर्व सरपंच रह चुके विनोद भ्याना इन दिनों हांसी विधानसभा में विधायक हैं। इससे पहले वे कांग्रेस सरकार के कार्यकाल के दौरान वर्ष 2009 से 2014 तक हांसी के विधायक व हरियाणा के मुख्य संसदीय सचिव (सीपीएस) भी रह चुके हैं। विनोद भ्याना के पिता महेश भ्याना 17 साल तक लोहारी राघो के सरपंच रहे हैं जबकि रत्न लाल चावला 7 वर्ष तक गाँव की सरपंची की कमान संभाल चुके हैं। इसके अलावा गाँव लोहारी राघो के पहले नंबरदार प्रहलादा सैनी रहे हैं जबकि पहले सरपंच सुधन सैनी, पहली महिला सरपंच सुदेश सैनी व पहले दलित सरपंच अजीत कुमार रहे हैं। नारनौंद खंड में ब्लॉक समिति सदस्य का चुनाव सबसे ज्यादा वोटों से जीतने का रिकॉर्ड भी लोहारी राघो के प्रीतम चावला के नाम है।
ये हैं लोहारी राघो के गौरव (लोहारी राघो के गौरव पट्ट के अनुसार )
1. खैराती लाल चांदना, अधीक्षक अभियंता सिंचाई विभाग(सेवानृवत)
2. विनोद चावला, संयुक्त निदेशक, महिला एवं बाल विकास विभाग
3. श्रीमती उषा चांदना, जिला योजना अधिकारी, महिला एवं बाल विकास विभाग
4. गुलशन धमीजा, एसोसिएट प्रोफेसर, गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय दिल्ली
5. दीपक चौपड़ा, एएसपी, भारतीय डाक विभाग
6. अजय चावला, प्रबंधक भारतीय स्टेट बैंक
7. कश्मीरी लाल चांदना, प्रबंधक पंजाब नेशनल बैंक
8. रतन लाल बड़गुजर, भूमि अधिग्रहण लोक निर्माण विभाग
9. इकबाल चांदना, सहायक प्रोफेसर, राजकीय महाविद्यालय
विकास के मामले में काफी पिछड़ा है लोहारी राघो, जानें वर्तमान में क्या हैं गाँव की सबसे मुख्य जरुरतें
गाँव
के लोगों का मुख्य धंधा खेती-बाड़ी है। इस क्षेत्र में जमीन काफी उपजाऊ
होने के कारण खेती व पशुपालन में यह गाँव जिलेभर में अग्रणी है। गाँव के
चहुँ और रजवाहों द्वारा खेतों में नहरी पानी पहुँच रहा है। एक और मसूदपुर
माईनर का काम इन दिनों जोरों पर है जिससे गाँव की सैकड़ों एकड़ जमीन की प्यास
बुझेगी। गाँव के अधिकतर लोगों के पास खेती के तमाम संसाधन उपलब्ध हैं।
विकास की अगर बात करें तो लोहारी राघो की गिनती काफी पिछड़े गाँवों में होती
है। विकास के नाम पर यहाँ एक अनाज मंडी, उप स्वास्थ्य केंद्र,आयुष केंद्र,
राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, राजकीय प्राथमिक पाठशाला, बाईपास, पशु
अस्पताल, पंजाब नैशनल बैंक, मिनी बैंक, हिसार ग्रामीण बैंक, 8 आंगनवाड़ी,
सभी जातियों की अलग-अलग धर्मशालाएं, रामलीला मैदान, गौशाला, कुएँ, चिल्ड्रन
पार्क, 4 जोहड़, पक्की सड़कें आदि हैं। इसके अलावा गाँव में पुस्तकालय, 33
केवी. बिजली घर, हर्बल पार्क तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र प्रस्तावित
हैं। हर तरह की राजनीतिक सभा व सम्मेलन का आयोजन गाँव के मध्य स्थित डेरी
वाले चौक, रामलीला मैदान व पंजाबी धर्मशाला में होता है जबकि सभी तरह की
खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय के पीछे स्थित
दशहरा मैदान में होता है। गाँव के विकास के लिए यहाँ ग्राम सचिवालय, खेल
स्टेडियम, पुलिस चौकी, एटीएम, व्यायामशाला की बहुत सख्त आवश्यक्ता है। गाँव
के लोगों का रहन-सहन भी अब बदलने लगा है। कभी हरियाणवी वेश-भूषा के लिए
विख्यात रहे इस गाँव की युवा पीढ़ी अब महानगरों के पहनावे को महत्व देने लगी
है। |
लोहारी राघो।
पंजाबी धर्मशाला के सामने स्थित यह मस्जिद गवाह है कि लोहारी राघो कभी
मुस्लिम बाहुल्य गाँव था। वर्ष 1947 में मुस्लिमों के पाकिस्तान चले जाने
के बाद गाँव में कुल 6 मस्जिदें थी जि नमें से अब दो शेष हैं। दो मिस्जदों
को गिराकर गुरुद्वारे बनाए गए हैं तो एक अन्य मस्जिद के मलबे पर घर आबाद
है। वहीं एक मस्जिद वर्तमान में खंडहर बन चुकी है। तस्वीर : प्रवीन खटक |
अब लुप्त होने को है ऐतिहासिक पहचान, पाँच मस्जिदों में से तीन ढ़ही, शेष दो की हालत भी खस्ता
कभी मुसलमानों का गढ़ रहा गाँव लोहारी राघो एतिहासिक हवेलियों व अटारियों से शोभायमान था। गाँव में पांच विशाल भव्य मस्जिदें व एक ईदगाह थी जिनका निर्माण चुना और पतली छोटी ईंटों से किया गया था जिनमें से अब दो शेष हैं। इन मस्जिदों की हालत इतनी खस्ता हो चुकी है कि ये किसी भी वक्त ढ़ह सकती हैं। इसके अलावा दो मस्जिदों के स्थान पर गुरुद्वारे(बाबा बंदा सिंह जी बहादुर गुरुद्वारा व कम्बोज गुरुद्वारा)बनाए गए हैं तो गाँव के ठीक मध्य स्थित एक अन्य मस्जिद के मलबे पर घर आबाद है। वहीं एक मस्जिदनुमा महल वर्तमान में पूरी तरह से खंडहर बन चुका है। गाँव के मध्य स्थित मस्जिद को इस गाँव का आकर्षण ही नहीं गौरव भी खा जा सकता है। लगभग एक शताब्दी पूर्व बनी यह मस्जिद बेहद सुंदर एवं आकर्षक है। इस मस्जिद को यदि बनावट की दृष्टि से देखा जाये तो एक पल में ही वास्तुकला की उत्कृष्टता का आभास हो जाता है। मस्जिद के भीतर तथा बाहर चुने से की गई चित्रकारी से पता चलता है कि यह कितनी भव्य इमारत रही होगी। भले ही आज इन मस्जिदों का ऐतिहासिक महत्व न रहा हो, लेकिन यह लोहारी की शान हैं तथा अपनी विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध हैं। एक से दो मीटर की चौड़ी दिवारें इन मस्जिदों कोे अंदर से पूर्णतया ठण्डा रखती हैं। इसके अलावा गाँव के दक्षिण दिशा में स्थित ऐतिहासिक ईदगाह की दीवारें भी अब जर्जर होकर ढ़ह चुकी हैं। यह वही इदगाह है जिस पर कुछ साल पहले तक अंग्रेजों द्वारा बरसाई गोलियों के निशान दिखाई पड़ते थे लेकिन मुरम्मत के अभाव में यह ऐतिहासिक स्थल अब खंडहर बनकर रह गया है। यदि इन जर्जर इमारतों को समय रहते नहीं सहेजा गया तो आने वाले 5-10 साल बाद गाँव लोहारी राघो की यह ऐतिहासिक निशानियां फिर कभी दिखाई नहीं देंगी।
पाठक कृप्या ध्यान दें : गाँव लोहारी राघो के इतिहास का पहला भाग हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। यह लोहारी राघो के इतिहास का दूसरा भाग है। उपरोक्त लेख में लोहारी राघो का अब तक के इतिहास का संपूर्ण विवरण देने का प्रयास किया गया है। भविष्य में उपलब्ध होने वाली अन्य सभी जानकारियों को गाँव लोहारी राघो के इतिहास से संबंधित लिखी जा रही पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ लोहारी’ में प्रकाशित किया जाएगा। यदि किसी भी ग्रामीण, वृद्ध के पास गाँव लोहारी राघो की स्थापना से लेकर इतिहास से संबंधित कोई भी पुरानी से पुरानी जानकारी, कोई घटनाक्रम, कोई तथ्य, कोई पुराना दस्तावेज, कोई पुराने से पुराना फोटो या किसी भी तरह की पुरानी जानकारी है तो जल्द से जल्द 9050260147 पर उपलब्ध करवा दें। वरना बाद में किसी भी तरह के दावे व आपत्तियों पर कोई विचार नहीं किया जाएगा। पुस्तक प्रकाशित होने के बाद उसमें प्रकाशित तथ्यों पर किसी तरह का विवाद खड़ा करना तर्कसंगत नहीं होगा। इसलिए सभी से अनुरोध है कि आपके पास गाँव के आबाद होने से लेकर अब तक की कोई भी जानकारी है तो हमें जल्द से जल्द उपलब्ध करवा दें। धन्यवाद
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