लगभग 15वीं-16वीं शताब्दी में पुन: अस्तित्व में आया आधुनिक लोहारी राघो
लोहारी राघो। सिंधु सभ्यता के विनाश के बाद करीब 5 हजार साल तक यह इलाका मानवीय गतिविधियों से महरुम रहा। नतीजन इलाके ने घनघोर जंगल का रुप ले लिया। (Know-when-Lohari-Ragho-was-Born-and-populated) जहाँ आज गाँव आबाद है, ठीक यही जगह कभी खतरनाक भयावह जंगली इलाका था। इस क्षेत्र में घने बरगद के पेड़, झाड़ियां व जंगली जानवरों की भरमार थी। आज से एक हजार साल पुराना भी ऐसा कोई प्रमाण व अवशेष नहीं मिल पाया है जो यह साबित कर सके कि यहाँ कभी कोई मानव हस्तक्षेप रहा हो क्योंकि पुरात्तत्व विभाग द्वारा की गई गई खुदाई में मिले अवशेष करीब 5 हजार साल पुराने बताए जा रहे हैं। इसके अलावा ग्रामीणों द्वारा अपने घर, खेत, संस्थान आदि में अलग-अलग मकसद से की गई खुदाई में मिले सिक्के, धातुओं के टुकड़े व अन्य वस्तुएं भी 300-400 साल से ज्यादा पुरानी नहीं हैं। एक अनुमान के मुताबिक हड़प्पा सभ्यता के नष्ट हो जाने के बाद वर्तमान गाँव लोहारी राघो आज से करीब 400 साल पूर्व यानि वर्ष 1500 व 1600 ई. में अस्तित्व में आया है। अब सवाल उठता है कि यह गाँव दोबारा से कैसे बसा, किन लोगों ने इसे बसाया और वे कहाँ से आए ? इसका अभी तक कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल पाया है। इस संबंध में गाँव के वृद्धों के अपने-अपने तर्क हैं। इसमें विरोधाभास भी हो सकता है। कुछ लोगों का कहना है कि यह गाँव मुस्लिमों द्वारा बसाया गया था तो कुछ इसे हिन्दुओं द्वारा बसाया गाँव बताते हैं। वहीं वर्ष 1947 में विभाजन के उपरांत लोहारी राघो से पाकिस्तान के मुल्तान स्थित डेरा मुहाम्मदी में जाकर रहने वाले वृद्ध मुहम्मद सुलेमान का भी यही दावा है कि लोहारी राघो को मुस्लिमों ने ही बसाया था।
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